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________________ ७० आचारांगसूत्रे सदनिशूचिकां कुर्यात, वान्तं वा कुर्यात् 'भुत्ते वा से णो सम्म परिणिमज्जा' भुक्तं या तत् संखडिगतं मिष्ठान्नादिकं नो सम्यक्तया परिणमेदू वा, यदि परिपक्वं न स्यात् तदा 'अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायके समुप्पज्जिज्जा' अन्यतरद् वा दुःखम् अन्यतरो वा कश्चिद् एको रोग: कुष्ठादिकः आतङ्कः शीघ्रप्राणावहती शूलादिकः समुत्पन्नः स्यात् तस्मात् 'केवली बूया आयाणमेयं' केवली केवलज्ञानी भगवान् ब्रूयात् ब्रवीति यत् आदानमेतत् एतत् संखडिगतं भक्तादिकम् आदानं कर्मबन्धनं वर्तते अतः साधूनां साध्वीनाञ्च संखडिगमनं सर्वथैव वर्जनीयमिति भावः ॥ सू० २८॥ मूलम्-इह खलु भिक्खू गाहावइहिं वा, गाहावइणीहिं वा, परिवायपहिं वा, परिवाइयाहि वा, एगज्जं सद्धिं सोउं पाउं भो यतिमिस्सं हुरत्था वा, उवस्मयं पडिलेहेमाणे णो लभिज्जा, तमेव उवस्सयं संमि. स्तिभावमावज्जिजा अण्णमण्णे वा से मत्ते विपरियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलोबे वा तं भिक्खु उवसंकमित्तु बूया आउसंतो समणा अहे आरामंसि वा, अहे उवस्सयसि वा, राओ वा, वियाले वा, गामधम्मणियंतियं कटु, रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउटामो तं करे अर्थात् अतिशय लोलुपता के कारण रस के लोभ से बहुत अधिक खाकर छर्दन करने से या वमन-उलटी करने से हो सकता है, या 'भुत्ते वा से संखडीगत मिष्टान्नादि को अधिक खालेने पर 'नो सम्मं परिणमिज्जा' यदि अच्छी तरह नहीं परिणत होता है-नहीं पचता है तो 'अन्नयरे वासे' कोई एक अथवा 'दुःक्खे' 'रोयातके' रोग-कुष्ठादि रोग या आतङ्क-तुरत ही प्राण का अपहरण करने वाला शूल आदि 'समुप्पजिज्जा' उत्पन्न होगा, इसलिये 'केवलीब्रूया'-भगवान् वीतराग केवली केवल ज्ञानी महावीर प्रभु कहते हैं कि 'आया. णमेय' यह-संखडी गत भक्तान्नादि आदान- कर्मबन्धन है, इसलिये साधु और साध्वी को संखडी में कभी भी नहीं जाना चाहिये। सू०२८॥ ભથી વધારે પડતું ખાવાથી છઠન કરવાથી અથવા ઉલ્ટી કરવાથી કેલેરા થવા સંભવ छ. भुत्तेवा से' स43111 मिष्टान्नानि यारे ५४तु पाथी ‘णो सम्मं परिणमेज्जा वा' सारी ते ५यन थतु नथी तथा 'अन्नयरे वा से दुःखे' a ६ ५ अथवा 'रोगातके' हिश अगर तर ४ प्राशुना शूर विगेरे 'समुपज्जिज्जा' SAR थाय तेथी केवलीबूया' भगवान् पीत२॥२॥ ज्ञानी मेवा मडावीर प्रभु डे छ 3'आवाणमेयं' 20 A4111 मा२६ मधनु ४२६ छ तथा साधु भने सापाय સંખડીમાં કઈ વખત જવું ન જોઈએ. સૂ ૨૮ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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