SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर्मप्रकाशिका टोका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ४ सप्तम अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ७९५ क्षेत्रावग्रहम् जानीयात् 'अनंतर हितार पुढवीए' अनन्तर्हितायाम् - शुष्कतृणादिभिरव्यवहितायां पृथिव्यां - भूमौ 'जाव संताणए' यावत्-संजानायां साग्निकायां सोदकायां पृथिव्यां 'तहपगाराए' तथाप्रकारायाम् - अनन्तर्हितायां सचित्तपृथिव्यां यावत् सन्तानायाम् साग्निकायां सोदकायाम् 'नो उग्गहं उग्गहिज्जा' नो अवग्रहम् अवगृह्णीयात् सकृद् वा अवग्रहं नो गृह्णीयात्, 'परिगिव्हिज्जा' परिगृह्णीयाद् वा असकृद् वा अवग्रहं नो गृह्णीयात्, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुग उवस्सए उवग्नहं जाणिज्जा' स यत् पुनः फिर भी प्रकारान्तर से क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह का निरूपण करते हैंटीकार्थ- 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदी ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जान लें कि - 'अनंतर हिताए पुढवीए' यह पृथिवी शुष्क तृण घास वगैरह से आच्छादित नहीं है अर्थात् अचित्त पृथिवी है एवं 'जाव संताणए' यावत् अग्निकाय सहित है तथा उदक अकाय सहित है एवं लूना तन्तु मकडा जाल वगैरह से भरी हुए है तो 'तहपगाराए नो उग्गहं उग्गिव्हिज्जा' इस प्रकार की अनन्त हित सचित पृथिवी पर वसने के लिये क्षेत्रावग्रह की एकबार या 'परिगिहिजवा' अनेकवार याचना नहीं करे क्योंकि इस तरह की शुष्कतृणादि से अनाच्छादित पृथिवी पर निवास करने से प्राणियों की हिंसा की संभावना रहती है जिससे संगमकी विराधना होती है, इसलिये शुष्क तृणादि से व्यवधान रहित सचित पृथिवी पर रहने के लिये क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह की याचना नहीं करनी चाहिये इसी प्रकार 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा से जं पुण एवं उबस्सए उग्गहं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ફરીથી પ્રકારાન્તરથી ક્ષેત્રાવગ્રહરૂપ દ્રવ્યાવગ્રહનું' નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. टीअर्थ' - 'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा' ते युर्वोत संयमशील साधु याने साध्वी ' से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा' ले मा वक्ष्यभाष रीते भवग्रहने लगे 'अनंतरहिताए पुढबीए' या भूमी सुरेखा तृष्ण घास विगेरेथी 'येस नथी अर्थात् सचित्त भूमि छे. 'जाव संताणए' व' यावत् अभियथी युक्त है, भने साथी युक्त छे. तथा सूता 'तु भारामण विगेरेथी लरेस छे तो 'तहप्पगाराए' भाषा प्रभारनी अनन्तर्हित सचित्त बूभीनी (५२ 'नो उग्गहं उग्गहिज्जा' पास કરવા માટે ક્ષેત્રાવગ્રહની એકવાર અથવા 'परिगिहिज्ज वा' अनेश्वर यायना रवी नहीं है अारनी सुडा घास विगेरेथी ઢંકાયા વગરની જમીન પર નિવાસ કરવાથી પ્રાણિયાની ર્હિંસા થવાની સભાવના રહે છે. તેથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સુકા ઘાસ વિગેરેના વ્યવધાન વગરની સચિત્ત જમીન પર રહેવા માટે ક્ષેત્રાવગ્રહરૂપ દ્રવ્યાવગ્રહની યાચના કરવી નહી. એજ પ્રમાણે 'से मिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु भने साध्वी 'से जं पुण एवं શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy