SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 787
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगसत्रे 'पडिग्गहमायाए' पतद्ग्रहम्-पात्रम् आदाय-गृहीत्वैव 'गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए' गृहपतिकुलम पिण्डपातप्रतिज्ञया-भिक्षाग्रहणार्थ 'पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा' प्रविशेद वा, निष्क्रामेद् वा उपाश्रयाद् निर्गच्छेद् ‘एवं बहिया वियारभूमी वा' एवम्-उक्तरीत्या बहिर्विचारभूमिं वा-मूत्रपुरीषोत्सर्गस्थलं, 'विहारमूमी वा' विहारभूमि वा-स्वाध्यायस्थलम् 'गामाणुगामं वा' ग्रामानुग्रामं वा-ग्रामाद् ग्रामान्तरं वा पात्रमादायैव 'इज्जिज्जा' येतगच्छेदित्यर्थः 'तिव्वदेसियाए' तीव्रदेश्यके-अत्यन्तजलवर्षावर्षणकाले 'जहा बिइयाए वत्थेसणाए' यथा द्वितीयायां वस्त्रैषणायाम्-वस्वैषणाया द्वितीयोद्देशके यथा उक्तं तथैव अत्रापि वक्तव्यम् किन्तु 'नवरं इत्थ पडिग्गहे' नवरम्-विशेषस्तु अत्र पतद्ग्रहे-पात्रैषणामधिकृत्य वक्तव्यमित्यर्थः 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुगीए वा एतत् खलु पात्रैषणम् कीदृशं पात्रं कामे' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में प्रवेश करने की इच्छा से 'पडिग्गहमायाए' पात्र को लेकर ही 'गाहावइ कुलं' गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपात की प्रतिज्ञा से भिक्षा ग्रहण करने की इच्छा से 'पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा' प्रवेश करे और भिक्षा लेकर निकले 'एवं बहिया विधारभूमि वा' इसी तरह उपाश्रय के बाहर भी विचार भूमि अर्थात् मलमूत्रादि का परित्याग करने के लिये और 'विहारभूमि वा' विहार भूमि-स्वाध्याय करने के लिये तथा 'गामाणुगामं वा दुइज्जिज्जा' एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाने के लिये भी पात्र को लेकर ही जाना चाहिये 'एवं तिव्वदेसियाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए' अत्यन्त वर्षा काल में जिस प्रकार द्वितीय वस्त्रैषणा के द्वितीय उद्देशक में कहा है इसी तरह यहां पर भी पात्रैषणा में समझना चाहिये किन्तु 'नवरं इत्थ पडिग्गहे' केवल इतनी ही विशेषता है कि यहां पर पात्र विषय की वक्तव्यता समझनी त सयमशीस साधु भने साध्वी 'गाहावइकुलं' पति शस्थ श्रावन। घरमा 'पविसि उकामे पडिग्गहमायाए' प्रवेश ४२वानी ४२४ाथी पात्रोन सधन ४ 'गाहावइकुलं पिडवायपडियाए' ३२५ श्रावन घरमा ति अर्थात् मिक्षा ग्रह ४२वानी थी 'पवि सिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा' प्रवेश ४२३। मने HAN सन. नी . 'एवं बहिया वियार. भूमि वा, विहारभूमि वा' मे प्रभारी उपाश्रयनी म १२ ५९५ विया२ भूमि अर्थात् મલમત્રને ત્યાગ કરવા માટે અથવા વિહાર ભૂમિ એટલે કે સ્વાધ્યાય કરવા માટે અથવા 'गामाणुगाम वा' मे४ मथी मारे ॥ ०४५। भाटे ५५५ पात्रने छन । 'दुइजिज्जा' न. मे प्रभारी तिव्वदेसियाए' सत्यत वर्षामा 'जहा बिझ्याए वत्थेसणाए' रे પ્રમાણે બીજી વસ્ત્રષણાના બીજા ઉદ્દેશામાં કહ્યું છે. એ જ પ્રમાણે અહીંયા આ પાવૈષણના Yथनमा ५५ सम से.. 'नवर इत्थपडिग्गहे' ५२तु ॥ ४थनमा टसी । विशेषता છે કે-અહીંયાં પાત્ર સંબંધી કથન સમજવું. એજ પાત્ર સંબંધી વિવેચન અર્થાત્ કેવા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy