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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ स्. १ पष्ठ पात्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७४३ स्थिरसंहननः-दृढ स्कन्धादिशरीरावयवो भवेत् ‘से एगं पायं धारिजा' स-तरुणः साधुः एकम्-एकमेव पात्रं धारयेत्-गृहोयात् 'नो बिइयं' नो द्वितीयं पात्रम्, तस्य पूर्ण समर्यत्वेन एकपात्रेणापि निर्वाहसंभवात् साधनां यथासंभवम् अल्पपरिग्रहत्वस्यैवौचित्यात्, एवंविधः साधुः जिनकल्पिकादि बोध्यः, तदन्यस्तु मात्रकसद्वितीयं पात्रं धारयेत्, तत्र संघाटके सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये च पात्रे पानकं मात्रकन्तु आचार्यादि प्रायोग्यकृते बोध्यम्, ‘से भिक्खू या भिक्खुणी वा स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'परं अद्ध जोयणमेराए' परम्-अधिकम् अर्ध. योजनमर्यादाया:-अर्धपोज़नादधिकम् 'पायपडियाए' पात्रप्रतिज्ञया-पात्रलाभार्थ 'नो अभिसंघारिज्जा गमणाए' नो अभिसंधारयेत्-विचारयेद, गमनाय-गन्तुम्, पात्रं याचितुम् अर्धवह जवान साधु पूर्ण समर्थ होने से एक पात्र से ही निर्वाह कर सकता है और साधु को यथासंभव थोडा ही परिग्रह रखना उचित है इस प्रकार का जिनकल्पिक वगैरह साधु हो सकते हैं जोकि एक ही पात्र से निर्वाह करने वाले होते हैं और जिनकल्पिक वगैरह से भिन्न साधु तो मात्रक के साथ द्वितीय पात्र को भी ग्रहण कर सकते हैं अर्थात् उनमें संघाटक रहने पर एकपात्र में भक्त (भात वगैरह) और दूसरे पात्र में पानक (दुग्धादि) रख सकते हैं और मात्रक नामका छोटा तीसरा पात्र तो आचार्यादि प्रायोग्य के लिये समझना चाहिये 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी 'परं अद्धजोयणमेराए पायपडियाए' अर्ध योजन मर्यादा से अधिक दर में पात्र की प्रतिज्ञा से अर्थात् पात्र लाभ की इच्छा से 'नो अभिसंपारिजा गमणाए' गमन करने का विचार नहीं करे अर्थात अर्ध योजन तक ही पात्र लेने के लिये साधु और साध्वी को जाना चाहिये उस से अधिक સ્વસ્થ યુવાન રિથર યુવાન સ્થિર સંહનન અર્થાત્ મજબુત કંધાદિ અવયવવાળા હોય 'से एगं पायं धारिज्जा' तेभरे थे पात्रने र ४२ ‘णो बिइय' मानु पात्र રાખવું નહીં. કેમ કે તે યુવાન સાધુ શક્તિશાળી હોવાથી એક પાત્રથી જ પિતાને નિર્વાહ કરી શકે છે. સાધુને યથાસંભવ થોડા જ પરિગ્રહ રાખવા ગ્ય છે. આ પ્રકા૨ના જનકલ્પિક વિગેરે સાધુઓ હોય છે. કે જેઓ એક જ પાત્રથી પિતાને નિર્વાહ કરવાવાળા હોય છે. અને જીનકલ્પિક વિગેરેથી અન્ય સાધુ તે માત્રકની સાથે બીજા પાત્રને પણ ગ્રહણ કરી શકે છે. અર્થાત તેમાં સંઘાટક રહેવાથી એક પાત્રમાં ભક્ત (ભાત વિગેરે) અને બીજા પાત્રમાં પાનક (દૂધ વિગેરે) રાખી શકાય છે. અને માત્રક नामनु नानु त्री पात्र तो आयय विगेरेन। प्रायोग्य भाट समपु. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वात सयभशी साधु सने सामी 'परं अद्धजोयणमेराए' अर्धा योनी भर्यायी पधारे ६२ 'पायपडियाए' पात्र हनी ४२७.थी 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' गमन ४२७ नही. अर्थात् अर्धा योन सुधी १ पात्र व माटे साई , श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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