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________________ प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० ११ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७३५ मार्गमध्ये तस्य - ग्रामान्तरं गच्छतः साधोः यदि विहम् - विपिनं स्याद् उपलभ्येत अथ च 'से जं पुण विहं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः विहम् - तद्विपिनं जानीयात् तद्यथा-' इमंसि खलु विहंसि' अस्मिन् खलु विहे विपिने 'बहवे आमोसगा' बहवः - अनेके आमोषकाःचौरा : 'त्थपडिया' वस्त्रप्रतिज्ञया वस्त्रलाभेच्छया 'संपिंडिया गच्छेज्जा' संपिण्डिताः एकत्रीभूताः आगच्छेयुः तर्हि 'नो तेर्सि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा' नो तेभ्यः संषिण्डितचौरेभ्यः भीतः त्रस्तः सन् उन्मार्गेण कुमार्गेण गच्छेत्, अपितु 'जाव गामाणुगामं दुइज्जिज्जा' यावत् - अल्पोत्सुकः समाहितः सन् ततः संयतमेव यतनापूर्वकमेव ग्रामानुग्रामम्-ग्रामाद्ग्रामान्तरम् दयेत- गच्छेत्, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गामाणुगामं दुइज्जमाणे ' ग्रामानुग्रामम् - ग्रामाद् ग्रामान्तरम् दूयमानः- गच्छन् 'अंतरा से आमोसगा' अन्तरा-मार्गमध्ये यदि तस्य ग्रामान्तरं गच्छतः साधोः आमोषकाः तस्कराः 'पडियागच्छेज्जा' पर्यागच्छेयुः अथ च 'ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा' जाणिज्जा' यदि उस बिहर जंगल को इस प्रकार वक्ष्यमाणरीति से यदि जानले कि- इमंसि खलु विहंसि' इस बिहर घोर भयंकर जंगल में 'बहवे आमोसगा' बहुत से अमोषक चुराने वाले चोर डाकू लुटेरे 'वस्थपडियाए संपिंडिया गच्छेज्जा' वस्त्र को लूटने की इच्छा से झुण्ड के झुण्ड मिल कर समूह के रूप से आते रहते हैं, ऐसा जान कर 'नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छेजा' उन चोर डाकु लुटेरे के भय से त्रस्त होकर उन्मार्ग-कुपथ से नहीं जाना चाहिये और 'जव गामाणुगामं दूइजिजा' यावत् अल्प उत्सुक होकर शान्त चित्त से समाहित होकर संयम पूर्वक ही अर्थात् यतनापूर्वक ही एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाय क्योंकि संयम का पालन करना ही साधु और साध्वी का परम्य कर्तव्य माना जाता है 'सेभिक्खू वा, भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि एक ग्राम से दूसरे ग्राम जा रहे हों और उनको 'अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेजा' उनको यदि मार्ग के मध्य पुण विहं जाणिज्जा' ने ले से भंगाने या वक्ष्यमाणु शेते लगे है - 'इमंसि खलु विहं सि' आधार सभां 'बहवे आमासगा वत्थपडियाए संपडिया गच्छेज्जा' धा थोरै લુટારાએ વજ્રાને લૂટી લેવાની ઇચ્છાથી ટાળાને ટાળા મળીને આવે છે. તેમ જાણીને 'णो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा' थे और डायोना लयथी लयलीत अर्ध ने अवणे रस्तेथी वु' नहीं'. 'जाब गामाणुगाम दूइज्जिज्जा' सने यावत् महत् याने शांत ચિત્તથી સમાહિત મનથી સંયમ પૂર્વક જ અર્થાત્ યતના પૂર્વક જ એક ગામથી બીજે ગામ જવું કેમ કે સ'યમનું પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાધ્વીનું પરમ કન્ય भानवाभां यावेस छ. ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु अने साध्वी 'गामाणुगाम' दूइज्जामाणे' ले ये गामथी जीने नाम नता होय मने 'अंतरा શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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