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________________ आचारागस्त्रे रिकवस्त्रस्य अधिकदिनोपभोगेन उपहतप्रायत्वात् अत्यन्तमलिनीभूतत्वेन परिधानायोग्यत्वाच्च स्वनिमित्तं ग्रहणं न कुर्यादित्यर्थः 'नो अन्नमन्नस्स दिज्जा' नो अन्योन्यस्य परस्परं वा अन्यस्मै वा दद्यात् 'नो पामिच्चं कुज्जा' नो वा प्रामित्यं पर्युश्चनरूपेण वा कस्मैचिद्दद्यात्, 'नो वत्थेण वत्थपरिणाम करिज्जा नो वस्त्रेण वस्त्रपरिणामम् वस्त्रपरिवर्तन वा कुर्यात् 'नो परं उवसंकमित्ता एवं वइज्जा' नो वा परम्-अन्यं कमपि साधुम उपसंक्रम्य समीपं गत्वा एवम्वक्ष्यमाणरीत्या वदेत् 'तं जहा-आउसंतो! समणा!' आयुष्मन् ! श्रमण ! 'अभिकंखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा' अभिकाक्षसि-वाञ्छसि त्वं वस्त्रं धारयितुं वा परिधातुं वा' इत्यपि न पृच्छेदित्यर्थः 'थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय पलिच्छिप्रातिहारिक वस्त्र को नहीं अपने लिये ग्रहण करे क्योंकि मुहूर्त मात्र के लिये याचना कर पांच दिन पर्यन्त उपभोग में लेने से वह वस्त्र उपहत प्राय हो जाता है इसलिये अत्यन्त मलिन होने के कारण पहनने योग्य नहीं रहता इसलिये इस तरह के वस्त्र को अपने लिये वस्त्रदाता साधु नहीं ग्रहण करें 'णो अण्णमण्णस्स दिज्जा' और दूसरे साधुको भी वह वस्त्र नहीं दिलावें, या नहीं दे इसी प्रकार 'णो पामिच्चं कुजा' उधार पैसा रूप में भी दूसरे किसी साधु को वह वस्त्र नहीं दे और "णो वत्थेग वत्थपरिणामं करिज्जा' उस वस्त्र से दूसरे वस्त्र का अदला बदली भी नहीं करे, और 'णो परं उवसंकमित्ता' किसी दूसरे अन्य साधु के पास जाकर 'एवं वइज्जा' ऐसा वक्ष्यमाण रूप से बोले भी नहीं 'तं जहा अउसंतो समणा' जैसे कि-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! 'अभिकंखसि वत्थं धारित्तए वा आप वस्त्र को धारण करना चाहते हैं ? या 'परिहरित्तए वा' पहनना चाहते हैं ऐसा भी नहीं पूछे 'थिरं वा संतं नो पलिच्छंदिय पलिच्छिदिय' अत्यन्त मजबूत उस वस्त्र को छिन्न હૂિજા' તે વસ્ત્ર આપનાર પ્રથમ સાધુએ તે વસ્ત્ર પિતાને માટે ગ્રહણ કરવું નહીં. કેમ કે એકાદ મુહૂર્તો માટે અર્થાત્ ચેડા વખત માટે યાચના કરીને પાંચ દિવસ સુધી તે ઉપભોગમાં લેવાથી તે વસ્ત્ર ઉપહત પ્રાય થઈ જાય છે. તેથી અત્યન્ત મલિન થવાના કારણે પહેરવાને લાયક રહેતું નથી. તેથી એ પ્રમાણેના વસ્ત્રને વસ્ત્ર દાતાએ પિતાને માટે अड' ४२३ नही. तथा 'नो अन्नमन्नस्स दिज्जा' भी साधुन ५ ते पत्र अपायु नही ५७ नही. 'नो पामिच्चं कुज्जा' तथा उधार 3 छीन। ३५ ५ भी साधुने ते पर भाप नही तेम 'नो वत्थेण वत्थपरिणामं कुज्जा' से रखना मसामा मान्नु पत्र सेवा ३५ सहसा पक्षी ५५ ३२वी नही. 'नो पर उबसंकमित्ता एवं बइज्जा' तय 15 मी. साधुनी पांसे १४ मा नीय ४ामा भावना२ रीते मास ५ नडी. 'तं जहा' रेभ है 'आउसतो समणा !' आयुष्मन् ! श्रम ! 'अभिकंखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा' ५ पखने घाण ४२॥ छ। छ। ? अथवा पडे२१॥ ४२छ। छ। १ सेम ५७ नही तय 'थिर वा सतं नो पलिच्छिदिय पलिच्छिद्यि श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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