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________________ प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू. ८ पञ्चमं वस्त्रपणाध्ययननिरूपणम् ७१७ आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' नो आतापयेद् वा प्रतापयेद् वा स्थूणादौ चलाचले वस्त्रपतनसंभवात् वायुकायिकजीवहिंसासंभवाच्च तेषु वस्त्रं नातापयेदित्यर्थः । ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा ' अभिका क्षेत्-यदि इच्छेद् वस्त्रम् आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तर्हि 'तहप्पारं वत्थं कुडियंसि वा भित्तंसि वा' तथाप्रकारम्-तथाविधं प्रक्षाचितं वस्त्रं कुडये वा भित्ते वा 'सिलसि वालेलुंसि वा' शिलायां वा प्रस्तर (चट्टान) रूपायाम्, लेलो लेष्टौ वा पाषाणखण्डे 'अन्नयरे तहपगारे अंत लिक्खजाए' अन्यतरस्मिन् वा तदन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे तथाविधे अन्तरिक्ष जाते - अन्तरिक्षस्थले 'जाव नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' यावत् - दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अनिsad चलाचले स्थाने नो आतापयेद् वा, प्रतापयेद् कुडयमित्त शिलादौ वस्त्रपतन संभवात् freeम्प भी नहीं है याने 'चलाचले' हिलता डोलता है एवं चलाचल अर्थात् चलायमान है इस प्रकार के अस्तव्यस्त रूप से खडे किये हुए स्तम्भादि के ऊपर 'नो आयाविज्ज वा पयाविज वा' वस्त्र को नहीं सुखाना चाहिये अन्यथा संयम की विराधना होगी, इसी तरह दीवाल वगैरह पर भी वस्त्र को नहीं सुखाना चाहिये इस आशय से कहते हैं 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, अभिकंखिज्ज थं आया वित्त वा पयावित्तए वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी यदि अपने वस्त्र को सुखाना चाहे तो 'तहप्पगारं बत्थं' इस प्रकार के आतापन प्रतापन करने योग्य अर्थात् सुखाने के योग्य कपडे को 'कुडियंसि वा भित्तंसि वा' कुड्य पर झोंपडा के ऊपर तथा दिवालों पर भिती-दीवाल पर तथा 'सिलंसि वा लेलंसि बा' शिला पर या ढेले पर या 'अण्णघरे वा तहप्पगारे' अन्य दूसरे भी इस प्रकार के टील्हे पर 'अंत लिक्ख जाए जाव' अन्तरिक्ष में यावत् आकाश में वस्त्र को 'णो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' नहीं सुखाना चाहिये क्योंकि इस तरह दीवाल वगैरह पर वस्त्र को सुखाने से कपडे को गिरने की संभावना रहती है और તથા રાવળે' ચલાચલ અર્થાત્ ચલાયમાન હૈાય આ રીતના અસ્તવ્યસ્ત રીતે ઉભા रेल स्तम्भहिनी उ५२ 'नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' वस्त्रनु यातायन प्रतापन કરવુ' નહી' તેમ સુકવવાથી સયમની વિરાધના થાય છે. તેજ પ્રમાણે ભીંત વિગેરેની उपर पशु वर सुचवा न लेहो, से आाशयथी सुत्रहार ४ छे. - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु भने साध्वी 'अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा' ले वने सुभ्ववा रहे तो 'तहप्पगार' वत्थं' आतायना प्रतापना वा योग्य अर्थात् सुवासाय पडाने 'कुडियंसि वा भित्तंसि वा' डुडयनी उपर अर्थात् जुथडा उपर अथवा लीत उपर 'सिलंसि वा' शिवानी उपर अथवा 'लेउ'सि वा' भाटीना देना उपर अथवा 'अन्नयरे तह पगारे अंतलिक्खजाए' मील सेवा अारना स्थान (५२ ' जाव नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' यावत् आशमां वस्त्रने सुम्ववा नहीं भ है या रीतेलींत विगेरेनी શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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