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________________ ७१६ आचारांगसूत्रे वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अभिवंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा' अभिका क्षेत् - वाञ्छेत् वस्त्रम् आतापयितुं वा 'पयावित्तए वा' प्रतापयितुं वा 'तहप्पगारं वत्थं धूणंसि वा गिलु - गंसि वा' तथाप्रकारम् - तथाविधं प्रक्षालितं वस्त्रम् स्थूणायां वा - स्तभ्मविशेषरूपायाम् 'गिहे लुगंसि वा' गृहेलु के वा - उम्बररूपे 'उसुयालंसि वा' उदुखले वा 'कामजलंसि वा' कामजले बा - स्नानपीठरूपे 'अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए' अन्यतरस्मिन् वा - तदन्यस्मिन् वा तथाविधे अन्तरिक्षजाते - अन्तरिक्षस्थले 'दुब्बद्धे दुनिक्खित्ते अणिकंपे' दुर्बद्धे न सम्यक् - तया बद्धे शिथिल बन्धयुक्ते इत्यर्थः, दुर्निक्षिप्ते - असम्यक्तया निक्षिप्ते, अनिष्कम्पे - निष्कम्परहिते कम्पसहिते इत्यर्थः 'चलाचले' चलाचले चलायमान अन्तरिक्षान्तर्वर्तिनिस्थाने 'नो अन्तरिक्ष स्थित स्तम्भादि पर अपने वस्त्र को नहीं सुखाना चाहिये क्योंकि इस तरह के हिलते डोलते या कांपते हुए स्तम्भादि पर वस्त्र को सुखाने से गिरने की संभावना रहती है इसलिये इस प्रकार के अन्तरिक्षस्थित स्तम्भादि के ऊपर वस्त्र को सुखाने से संयमकी विराधना होगी, अतः संयमपालनार्थ यतना पूर्वक ही वस्त्र की आतापन तथाप्रतापना करनी चाहिये इसी तात्पर्य से कहते हैं कि 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा, पयावित्तए वा ' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि अपने वस्त्रों को आतापन और प्रतापन अर्थात् अच्छी तरह सूर्य के किरण में याने तरका धूप में सुखाना चाहे तो 'तहप्पगारं वत्थं धूर्णसि वा' इस प्रकार के स्थूणा अर्थात् स्तम्भ - खम्भा पर या 'गिहेलुगंसि वा' गृहेलुक - धरन पर या उदूखल धरन के ऊपर रक्खे हुए उखर के ऊपर या 'उसुयालंसि वा' मलित्थम पर या 'कामजलंसि वा' कामजल अर्थात् स्नान पीठ पर या बाजोठ पर या 'अन्नयरे तहपगारे अंत लिक्खजाए' इसी प्रकार के दूसरे किसी भी अन्तरिक्ष-आकाश में खड़े किये हुए आधार विशेष पर जोकि 'दुब्बद्धे' दुर्बद्ध है अर्थात् खूब मजबूती से नहीं बद्ध हुआ है एवं 'दुन्नक्खित्ते' ठीकरूप से निक्षिप्त-स्थापित भी नहीं तथा 'अणिकंपे' તેથી સંયમનુ પાલન કરવા માટે યતના પૂર્વક જ વસ્ત્રને આતાપના કે પ્રતાપના કરવા, मेन हेतुथी सागण सूत्रकार छे है- 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु भने साध्वी 'अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा' ले पोताना वस्त्रोने सूर्यांना हिरशोभां सारी रीते तडठाभां सुभ्ववाच्छे तो 'तहप्पगार वत्थं तेवा વજ્રને થાંભલા ઉપર અથવા ‘નિર્દેલુńત્તિ વા’ ગૃહેલક અર્થાત્ ઘરના ઉમરા ઉપર અથવા 'उसुयालंसि वा' धरनी उपरना भाणीया उपर अथवा 'कामजलंसि वा ' કામજલ अर्थात् नावाना पाटला पर 'अन्नयरे तहपगारे अंतरिक्खजाए' तथा था अारना भील अर्ध मतरिक्षमां ला कुरवामां आवे आधार पर हे 'दुबद्धे' सारी रीते थोडेस न होय अथवा भूख भन्न्यूत रीते मधेस न होय तेवा 'दुन्निखित्ते' सारी रीते स्थापित न होय तथा 'अणिकंपे' तु पाय होय अर्थात् हासतु डोसतु होय શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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