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________________ आचारांगसूत्रे किमित्याह-'भाहरेयं वत्थं समणस्स दाहामो' आहर ! आनय इदं वस्त्रं, येन श्रमणस्य-श्रमणाय साधये दास्यामः 'अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सट्टाए' अपि च खलु वयम् पश्चादपि आस्मनः स्वार्थाय-आत्मार्थम् 'पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई' प्राणान्-प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्वान् 'समारंभ समुहिस्स' समारभ्य समुद्दिश्य-प्राण्याधुपमर्देन 'जाव चेइस्सामों' यावत् अपरं वस्त्रं चेतयिष्यामः-करिष्यामः उपार्जयिष्याम इत्यर्थः 'एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म' एतत्प्रकारम्-उपर्युक्तरूपं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य-हृदि अवधार्य 'तहप्पगारं वत्यं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा' तथाप्रकारं वस्त्रम् अप्रासुकम् सचित्तम् पश्चात्कर्मयुक्तत्वाद् यावद अनेषणीयं मन्यमानो लाभे सत्यपि नो प्रतिगृहीयात, पुनरपि प्रकारान्तरेण वस्त्रैषणा. मेव प्ररूपयितुमाह-'सिया णं परो नेता वइज्जा' स्यात्-कदाचित् खलु परो नेता गृहस्थप्रमुखः वदेत् ‘आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' आयुष्मन् ! इति वा भगिनि ! इति वा-इत्येवं. णस्स दाहामो' लेआओ इस वस्त्रको क्योंकि इस श्रमण साधु को देना है और 'अबियाई वयं पच्छावि अप्पणो सअट्ठाए' हमलोग अपने स्वार्थ के लिये 'पाणाई भूयाई, जीवाइं, सत्ताई' प्राणियो, भूतों जीवों और सत्वों को 'समारंभ समुदिस्स जाव चेइस्सामों' समारंभ संरंभ और आरंभ करके तथा प्राणिआदि को उपमर्दन के द्वारा यावत् दूसरे वस्त्र को बनवा लेंगे-'एयप्पगारं णिग्योसं सुच्चा निसम्म' इस प्रकार के उस गृहस्थ का शब्द सुनकर और हृदय में धारण कर 'तहप्पगारं वत्थं अप्फासुयं जाव' इस प्रकार के वस्त्रको अप्रासुक-सचित्त समझकर तथा यावत् अनैषणीय आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर पश्चाकर्म युक्त होने से 'नो पडिगाहिजा मिलने पर भी नहीं लेना चाहिये क्योंकि पश्चात्कर्मादि दोषों से युक्त होने से संयमकी विराधना होगी। अब दूसरे ढङ्ग से वस्त्रैषणा कोही लक्ष्यकर बतलाते हैं-'सिया णं परो नेता वइजा' स्यात् यदि कदाचित् पर-गृहस्थ नेता-मुखिया अपने सम्बन्धी जिस से पर दाम २॥ साधुन ते ५ छ. 'अवियाइं वय पच्छावि अप्पणो सअदाए' भने मपणे मा५९ ७५॥ माटे 'पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई समारंभसमुहिस्स' प्राणियो, भूतो वो भने सत्वाना सभा स२ मने मान ४रीने 'जाव चेइस्सामो' तथा प्राणि विरेनु उपमन ४शन यावत् मीत १२७ मनावी . 'एयप्पगार 'निग्धोसं सुच्चा' २रीतना ते गृहस्थनशहने सामनीने 'निसम्म' तथा तनयमां धारण ४रीन 'तहप्पगारं वत्थं अल्फासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा' सेवा प्रारना वखने मप्र:સચિત્ત સમજીને તથા યાવત્ અનેષણય આધાકર્માદિ દોષોથી યુક્ત સમજીને પશ્ચાત્કમ યુક્ત હોવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી મુનિઓને તે ગ્રહણ ન કરવા કહેલ છે. रा-तरथी परषाने उद्देशाने ४थन ४२ ७. 'सिया णं परो णेता वइज्जा' . हाय २५ नेता अर्थात भुण्य यति धरना ३६५॥ भामने -'आउ. श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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