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________________ ६३४ आचारांगमने अभिरूवंसीति वा पडिरूवंसी पडिरूवंसीति वा' अभिरूपिणम्-सौन्दर्यशालिनम् अभिरूपी इति शब्देन प्रतिरूपिणम् पुरुष प्रतिरूपीति शब्देन वदेदिति, एवं 'पासाइयं पासाइयं सीति वा दरिसणिज्जं दरिसणीयत्ति वा' प्रसादनीयं प्रासादनयोग्यं प्रसन्नतायुक्तं पुरुषं प्रसादनीय इति शब्देन, दर्शनीयम् दर्शनयोग्यं पुरुषं दर्शनीय इति शब्देन वदेदिति पूर्वेणान्वयः, एवं 'जे यावन्ने तहप्पगारा तहप्पगाराहि भासाहिं बुइया बुइया नो कुप्पंति माणवा' ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः पूर्वोक्तसदृशाः प्रशस्य सौन्दर्ययुक्ताः पुरुषाः तथाप्रकाराभिः पूर्वोक्तसदृशीमिः भाषाभिः उक्ताः उक्ताः पौनः पुन्येन सम्बोधिताः नो कुप्यन्ति मानवाः 'तेया वि तहप्पगारा' ताश्चापि तथाप्रकारान् प्रशंसनीयान् पुरुषान् 'एयप्पगाराहि भासाहि' एतत्प्रकाराभिः पूर्वोक्तसदृशीभिः अभिरूपादि शब्दरूपाभिः भाषाभिः 'अभिकंख भासिज्जा' अभिकाक्ष्य मनसा तिवा' वर्चस्वी पुरुष को वर्चस्वी शब्द से बोलना चाहिये तथा 'अभिरुवंसी अभिरुवंसीति वा' अत्यंत सौंदर्यशाली अभिरूपी पुरुषको अभिरूपी शब्द से तथा 'पडिरूवंसी पडिरूवंसीति' प्रतिरूपी पुरुष को प्रतिरूपी शब्द से बोलना चाहिये इसी तरह 'पासाइयं पासाइयंसीति वा' प्रसादन योग्य प्रसादनीय पुरुष को प्रसादानीय शब्द से और 'दरिमणिज्ज्जं दरिसणिज्जंति वा' दर्शनीय पुरुष को दर्शनीय शब्द से बोलना चाहिये इसी प्रकार 'जे यावन्ने तहप्पगारा' जो पूर्वोक्त सदृश अत्यंत प्रशस्य सौंदर्यशाली पुरुष है उनको 'तहप्पगाराहिं भासाहि बुझ्या बुझ्या नो कुप्पंति माणवा' उसी तरह के प्रशंसनीय शब्दों से बोलने पर पुरुष गुस्सा नहीं करते हैं इसलिये 'तेयावि तहप्पगारा' और भी जो इस प्रकारके प्रसंसनीय पुरुष है उनको 'एयप्पगाराहिं भासाहिं इस प्रकार के अभिरूपादि शब्दों से 'अभिकंख भासिन्जा' संबोधन करना चाहिये अर्थात् साधु और साध्वी मन से विचार कर ऐसे ही रमणीय शब्दों से उन रमणीय प्रशं. यशस्वी श ४थी तथा 'वच्चंसी वच्चसीपि वा' क्या ५३पने वयवी थी उनेय. तथा 'अभिरूवंसी अभिरूवंसीति वा' अत्यात २१३५वान ३१ने अभि३५ शयी तथा 'पडिरूवंसी पडिरूवंसीति वा' प्रति३पी पु३षने प्रति३५ मे शम्थी माता न . ४ प्रमाणे 'पासाइयं' पासाइयं सीति वा' प्रसाहन योग्य प्रसाहनीय ५३५ने प्रसाहनीय शम्थी भने 'दरसणिज्जं दरसणिज्जंति वा' शनीय ५३१२ शनीय शपथी मताaan नेमे से प्रमाणे 'जे यावण्णे तहप्पगारा' रे पूरित awa २१॥ मत्यत प्रशस्य सोइयशाली ५३५ डाय तर 'तहप्पगाराहिं भासाहि' सेवा प्रा२ना सत्यत प्रशस्य सौ यशाजी ५३५ डाय ते मे २प्रशसनीय Avatथी माताथी 'बुइया बुइया नो कुप्पंति माणवा' ते ५३५ छोध ४२ता नथी तथा 'ते यावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहि' भात ५५ रे मापा ४२ प्रशसनीय ५३५ डाय तेमन मे०४ प्रा२नी भनि३५ शहाथी 'अभिकंख भासिज्जा' समाधन शन मसा! अर्थात् साधु भने सावाये भनथी पियार કરીને આવા સુંદર અને રમણીય શબ્દોથી એ પ્રશંસનીય પુરૂને સંબોધિત કરવા, श्री. आयासूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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