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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू० २५ तृतीयं ईध्ययननिरूपणम् ५७३ अणासायमाणे' हस्तेन वा हस्तम् यावत्-पादेन वा पादम् कायेन वा कायम् आसादयेत स्पृशेत् एवं अनासादयन् असंस्पृशन् 'तो संजया मेव' ततः तदनन्तरम् संयत मेव-यतनापूर्वकमेव 'आयरिय उवज्झाएहिं सद्धिं' आचार्योपाध्यायैः सार्द्धम् 'भामाणुगाम' अमानुग्रामम्-ग्रामाद् ग्रामान्तरम् 'दुइज्जिज्जा' दृयेत-गच्छेत्, ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा स भिक्षु ी भिक्षुकी वा 'आयरियउवज्झाएहिं सर्द्धि' आचार्योपाध्यायैः सार्द्धम् 'दइज्जमाणे' दूयमानः गच्छन् 'अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा' अन्तरा-गमनमार्गमध्ये तस्य गच्छतः साघोः संमुखे प्रातिपथिकाः पथिकाः यदि उपागच्छेयुः 'तेणं पाडिवाहिया' ते खलु प्रातिपथिकाः सम्मुखासीनाः पथिकाः 'एवं वइज्मा' एवं-वक्ष्यमाणरीत्या वदेयु:-'आउसंतो! समणा ! आयुष्मन्तः! श्रमणाः 'के तुब्भे? के यूयं भवन्तः 'कओवा एहि ?' कुतो वा आगच्छथ ? 'कहिं को अपने हाथों से नहीं छूना चाहिये एवं 'जाव अणासायमाणे' याचत् आचार्यादि के पैरों को अपने पैरों से संस्पर्श नहीं करना चाहिये एवं अपने शरीर से भी आचार्यादि के शरीरका स्पर्श नहीं करना चाहिये इस तरह अपने हाथ पांय शरीरसे आचार्य उपाध्याय वगैरह के हाथपैर शरीरादि का संस्पर्श नहीं करते हुए 'तओ संजयामेव आयरिय उवज्झाएहिं सद्धि' संयम पूर्वक ही उन आचार्य-उपाध्याय-गणधर वगैरह के साथ 'गामाणुगामं दुइजिज्जा' एक ग्राम से दसरे ग्राम जाना चाहिये 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरिय उवज्झाएहिं सद्धिं दुइज्जमाणे' यह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी आचार्य और उपाध्याय वगैरह के साथ जाते हुए हो और 'अंतरा से पाडिव. हिया उघागच्छिज्जा' उस साधुको और साध्वी को मार्ग के मध्य में यदि कोई प्रतिपथिक राहगीर बटोही वगैरह पथिक आ जाय और 'तेणं पाडिवाहिया' वे पथिक एवं वहज्जा' यदि इस प्रकार बोले अर्थात् पूछे कि 'आऊसंतो समणा' है आयुष्मन् ! भगवन् ! श्रमण ! 'के तुम्भे' ? आप कोन है ? और 'कओवाજમાને યાવત્ આચાર્યાદિના પગેને પિતાના પગથી સ્પર્શ કરવે નહીં તથા પિતાના શરીરથી પણ આચાર્ય વિગેરેના શરીરનો સ્પર્શ કરવું નહીં આ પ્રમાણે પિતાના હાથ પગ અને શરીરથી આચાર્ય ઉપાધ્યાય વિગેરેના હાથ પગ શરીર વિગેરેને સ્પર્શ કર્યા વિના 'तओ संजयामय आयरिय उवज्झाएहि सद्धि' सय ५४ आयाय ५६याय ५२ विगैरेनी सा2 से मथी मारे ॥ ४ ‘से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूर्यास्त सयमशील साधु भने साथी 'आयरिय उबझाएहिं सद्धि' भायाय मने ध्याय विरेनी साथे 'दूइज्जमाणे' गमन ४२i 'अंतरा से पाडिवाहिया वागच्छिज्जा' से साधु है साली भागमा ६ पटेभागु भावी an५ ते गं पडिवाहिया एवं वइज्जा' भने भुसा५२ ने मेवी रीते ४ -'आउसंतो! समणा !' 8 आयुष्मन् ! ७ श्रम ! 'के तुम्भे तभी छ. 'कओ वा एह' भने यांची मा छ। ? 'कहिं या गच्छिहिह' श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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