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________________ ५५२ ___ आचारांगसूत्रे दिकं नो कुर्यात् 'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथ-यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात-'विगओदए मे काए' विगतोदको जलबिन्दु रहितो मे-मम कायोऽस्ति, 'छिन्नसिणेहे' छिन्न स्नेहः स्नेहरहितश्च मम कायः सम्पन्नः इत्येवं यदि जानीया तर्हि तहप्पगारं कायं' तथा प्रकारम्-जलबिन्दुरहितम् स्ने हरहितञ्च कायम् 'आमज्जिज्ज वा' आमार्जयेद् वा 'पमनिज्ज वा' प्रमार्जयेद् वा संलिखेद् वा निलिखेद् वा उद्वलयेद् वा उद्गर्तयेद् वा आतापयेद् वा 'पयाविज्ज वा' प्रतापयेद् वा 'तओ संजपामेव' ततः तदनन्तरम् संयतमेव यतनापूर्वकमेव 'गामाणुगामं' ग्रामानुग्रामम्-ग्रामाद् ग्रामान्तरम् 'दृइज्जिज्जा' गच्छेत् ॥सू० २०॥ ___मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे नो मटियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिदिय ठिदिय विकुन्जिय विकुजिय सूर्य किरण वगैरह से आतापन भी नहीं करें, तथा प्रतापन भी नहीं करें। अर्थात् जैसे के तैसे ही पानी के दूसरे तट पर जाकर रहे 'अह पुण एवं जाणिज्जा' किन्तु यदि वह साधु ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जान लेकि 'विगओदए मे काए' मेरा शरीर पानी से रहित हो चूका है और 'छिन्नसिणेहे' स्निग्ध भी नहीं है अर्थात् बिलकुल ही सूख गया है 'तहप्पगारं कायं' ऐसा देखले या जान ले तो इस प्रकार के शरीर को 'आमजिज्ज वा पमज्जिज्ज वा' आमजन तथा प्रमार्जन भी करे एवं 'जाव पयाविज्ज वा' यावत् संलेखन तथा निलेखन अर्थात् प्रतिलेखन भी करे तथा उद्वलन एवं उद्वर्तन भी करें तथा आतापन अर्थात् सूर्यादि के किरणों से आतापन तथा प्रतापन भी करें और 'तओ संजयामेव' उस सूखे हुए शरीर को आमाजन प्रमाजन तथा आतापन प्रतापन करने के बाद संथम पूर्वक ही 'गामाणुगामं दूइन्जिन्जा' एक ग्रामसे दूसरे ग्राम जाय क्योंकि इस प्रकार गमन करने से संयम की विराधना नहीं होती, इसलिये संयमपालन करना साधुओं का परम कर्तव्य है ॥सू. २०॥ સૂર્યકિરણ વિગેરેથી તપાવવું પણ નહીં અને પ્રતાપન પણ કરવું નહીં. અર્થાત્ જેમના तम पीना सामे निारे धन २३. 'अह पुण एवं जाणिज्जा' परंतु ते साधु , सामान यामां से भाव-विगओदए मे काए' भा३ शश२ पाणी सहित २७ गयु छ तथा 'छिण्णसिणेहे' स्निग्ध पर नथी. अर्थात् मिस सु४ गये छे. से शत नसे, तो सेतो 'तहप्पगारं काय' या प्रभारीना ।२। शरीरनु 'आमज्जिज्ज वो पमज्जिज्ज़ वा' मामा मन प्रभान ५९ ४२ 'जाव पयाविज्ज वा' अब यात् સંલેખન તથા નિલેખન અર્થાત્ પ્રતિલેખન પણ કરવું તથા આતાપન અર્થાત્ સૂર્યાદિના १२थी आतापन मने प्रतापन ४ा पछी 'तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा' સંયમ પૂર્વક જ એક ગામથી બીજે ગામ જવું, કેમ કે આ પ્રમાણે ગમન કરવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી સંયમપાલન કરવું એજ સાધુઓનું પરમ કર્તવ્ય છે. સૂ.૨૦ श्री माया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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