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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० १९ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५४७ टीका-सम्प्रति साधूनां वाक् संयमपूर्वकमेव ग्रामान्तरगमनं प्रतिपादयितुमाह- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी या 'गामाणुगामं दुइ नमाणे' ग्रामानुग्रामम्-ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छन् 'अंतरा नो परेहिं सद्धि' अन्तरा-मार्गमध्ये नो परैः गृहस्थैः सार्दम् 'परिजविय परिजविय' परियाप्य परियाप्य पौनःपुन्येन बहुगर्ह भाषणं कुर्वन् 'गामाणुगामं दूइज्जिज्जा' ग्रामानुग्रामं ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छेत्, वृथाऽऽलापवर्जनपूर्वकमेव नामान्तरं गच्छे दितिभावः, तथासति बाक् संयमेन संयमविराधनं न स्यात् ॥सू०१९॥ मूलम्-से मिक्रवू चा मिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जंघासंतारिमे उदगं सिया, से पुठ्यामेव ससीसोबरियं कायं पाए य पमज्जिज्जा, पमज्जित्ता एगं पाये जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा तओ संजयामेव उदगंसि आहारिय रीएज्जा, से भिक्खू वा भिक्खुणी चा आहारियं रीयमाणे नो हत्थेन हत्थं पायेग पायं जाय अणासायमाणे तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीयमाणे नो बतलाते हैं___टीकार्थ-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए 'अंतरा णो परेहिं सद्धिं परिजविय परिजविथ' मार्ग के मध्य में गृहस्थों के साथ बारबार बहुत से गर्हित निंदित भाषण करते हुए 'गामाणुगामं दूइजिज्जा' एक ग्राम से दूसरे ग्राम नहीं जाय अर्थात् वृथा आलाप वर्जन पूर्वक ही प्रामान्तर में गमन करे क्योंकि बहुत से गहित वृथा आलाप करने से संयम की विराधना होगी 'तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा' इसलिये वाक्संयम पूर्वक ही गमन करने से संयमकी विराधना नहीं होती । सू० १९॥ थन 3रे छ. टी-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभशी साधु भने सपास 'गामाणुगामं दूइज्जमाणे' मे भयो भार ॥ rai 'अंतरा नो परेहिं सद्धिं' भागमा हरयानी साथे 'परिजविय परिजविय' पार वार निहित साप ४२ ४२di ‘गामाणुगाम દૂન્નિકા” એક ગામથી બીજે ગામ જવું નહીં અર્થાત્, વૃથા પ્રલાપને ત્યાગ કરીને ગામ ન્તરમાં ગમન કરવું કેમ કે નકામે લાગૂવિલાસ કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય छ. तेथी 'तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा' पालीन सय ५५४ १ गमन કરવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી. ૧૯ છે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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