SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध १ उ. २ सू० १८ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् कायम् पासादयेत् - संस्पृशेत्, आस्फालयेद् वा 'से अणासायणाए' स साधुः अनासादनयाअसंस्पर्शन अनास्फालनेन वा 'अणासायमाणे' अनासादयमानः हस्तादिना हस्तादिकम् असंस्पृशन् अनास्फालयन् वा 'तओ संजयामेव उदगंसि षविज्जा' ततः तस्मात् कारणात् तदनन्तरं वा संयतमेव यतनापूर्वकमेव उदके प्लवेत- संतरेत्, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी 'भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'उदगंसि पत्रमाणे' उदके प्लवमानः 'नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिज्जा' नो उन्मज्जननिमज्जनं कुर्यात् अन्यथा हस्तादिका स्फालनेन उन्मज्जननिमज्जनेन वा अकायिकजीवानां हिंसया संयमविराधना स्यात् साधूनां तन्नोचितम् एवम् 'मामेयं उदगं कन्नेसु वा अच्छी सु वा नकंसि वा मुहंसि वा परियावज्जिज्जा' मा मे-मम इदम् उदकम् कर्णयो of अक्ष्णो व नासिकयो व मुखे वा पर्यापद्येत प्रविशेदित्येवं मनसि चिन्तामपि न कुर्यादित्यर्थः, तओ संजयामेव उदगंसि पविञ्जा' ततः तस्मात् कारणात् संयत नहीं करे और - काय ' से अणासायणाए अणासायमाणे' वह साधु अनासादन से अर्थात असंस्पर्श से और अनास्फालन से हाथादि को हाथ वगैरह से नहीं छूते हुए और नहीं आस्फालन करते हुए 'तओ संजयामेव उदगंसि पविज्जा' संयम पूर्वक ही पानी में तैरे - ' से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, उदगंसि पचमाणे ' - वह भिक्षु और भिक्षुकी पानी में तैरते हुए- 'नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिज्जा' उन्मज्जन निमज्जन भी नहीं करे अन्यथा हाथ पाद वगैरह से हाथ पाद वगैरह का आस्फालन से इधर उधर पटकने से और उन्मज्जन निमज्जन करने से अकापि जीवों की हिंसा होने से संयम की विराधना होगी सो साधु के लिये ठीक नहीं कहा जासकता 'मामेयं उद्गं कन्नेसु वा अच्छी वा' इस प्रकार यह पानी मेरे कानों में या आंखों में या 'नक्कंसि वा मुहंसि वा' नाकों में या मुख में या अन्य किसी अवयवों मे 'परियावज्जिज्जा' प्रवेश कर जायेगा ऐसी चिन्ता भी साधु साध्वी के मनमें नहीं करनी चाहिये 'तओ संजयामेव उदगंसि ५४३ ४२वे। नहीं'. 'से अणासायणाएं' भने से साधु अनासाहनाथी असस्पर्शथी तथा 'अणासायमाणे' अनारशासनथी हाथ विगेरेने हाथ विगेरेया स्पर्श अर्या विना भने लटाव्याविना 'तओ संजयामेव उदगंसि पविज्जा' संयम ४ ४ पाशुभां तरता रहेवु 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते साधु भने साची 'उदगंसि पवमाणे' पाणीभांतरता तरतां "नो उम्मुग्गतिमुग्गियं करिज्जा' उन्भन्न निसान पुरया नहीं अर्थात् ડુબકીયા ખાવી નહી. નહીતર હાથ પગ વગેરેના આસ્ફાલન અર્થાત્ અથડાવાથી તથા ડુબકીયા ખાવાથી અપ્કાયના જીવાની હિંસા થવાથી સયમની વિરાધના થશે. એ સાધુને भाटे योग्य अहेवालु नथी. ४ प्रमाणे 'मामेय उदगं कन्नेसु वा अच्छी वा मा पाणी भारा छानामा डे आणाभां 'नक्कंसि वा मुहंसि वा' नाउमा भेोदामां है जीन अवययेोभां 'परियाविज्जा' प्रवेश १२शे मेवी चिंता या साधुये रवी नहीं, परंतु શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy