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________________ D ५०० आचारांगसूत्र गामंसि वा णयरंसि वा' अस्मिन् खलु ग्रामे वा नगरे वा 'खेडंसि चा कव्यांसि वा' खेटे वा कर्बटे वा 'मडंबंसि वा' पट्टणंसि वा' मडम्बे वा पत्तने वा 'जाव रायहाणिसि या' यावद्संनिवेशे वा निगमे वा द्रोणमुखे वा आकरे वा आश्रमे वा राजधान्यां वा 'महई विहारभूमी' महती विहारभूमिः विशाला स्वाध्यायभूमि वर्तते 'महई विचारभूमी' महती विचारभूमिः अत्यन्त विस्तारा मलमूत्रत्यागभूमिरस्ति 'सुलभे जत्थ पीढफलगसिज्जासंथारए' मुलभानि-अनायासलभ्यानि यत्र-यस्मिन ग्रामादौ पीढफलकशय्यासंस्तारकाणि काष्ठपट्टिकादि तृणाच्छादनानि सन्ति 'मुल में फासुए उंछे अहेसणिज्जे' सुलभः प्रासुकः अचित्तः पिण्डपातरूप उछः अथ च एषणीयः आधाकर्मादि दोषवर्जितो भिक्षालाभः संभवति 'णो जत्थ बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमगा' नो यत्र-यस्मिन् ग्रामाद्रौ बहवः अने के छोटी झोपडी को या राजधानी-राजमहल को जानले की 'इमंसि खलु गामंसिवा णयरंसि वा, खेडंसि वा, कब्बडंसिया' इस पूर्वोक्त ग्राम में या नगर में या खेट छोटे छोटे ग्राममें या कर्बट छोटे छोटे नरग में या 'मडंबंसि वा मडम्ब कसबा में या-'पट्टणंसि चा पत्तन छोटे छोटे शहर में या 'जाव रायहाणिसि था' यावत् द्रोणमुख पर्वत की तलेटी में या आकर-खान या गुफामें या निगममें या संनिवेश में या राजधानी राजमहल में 'महई विहारभूमी' बडी विशाल-विहार-भूमि स्वाध्याय भूमि सुलभ है-एवं 'महई विचारभूभी सुलभे' बडी विशाल विस्तृत विचार-भूमि मलमूत्रादि त्याग भूमी है और-'जत्थ पीठ फलगसिज्जासंथारगे सुलभे' जहां पर पीठ फलक पाट वगैरह शयनीय शय्या संस्तारक सुलभ से ही मिलते हैं एवं जहां पर 'फासुए उंछे अहेसणिज्जे' प्रासुक अचित्त-और उन्छ अर्थात् एषणीय आधाकर्मादि सोलह दोषों से रहित पिण्डपात अशनादि चतु. चिंध आहार जात अत्यंत सुलभ रूप से ही मिलता है और 'णो जत्थ बहवे 424 निगम-नानी उपडा , २४पानी सेवा प्राथी समरे -'इमंसि खलु गामसि वा णगरंसि वा' २॥ पूति ॥i , २i A24। 'खेडंसि वा कब्बडसि बा' भेट-नाना नाना गाममा , ४ नाना नसभा 'मडंबंसि वा पणंसि वा' भ34-- समामा , पत्तन नाना नाना शरभ अथवा 'जाव रायहाणिसि वा' यावत् द्राभुप પર્વતની તળેટિમાં અથવા ખાણમાં ગુફામાં અથવા નિગમમાં અથવા સંનિવેશમાં કે राधानीमi अथवा 'महई विहारभूमी महई विधारभूमी' ५५ पिश 48२ भूमि-स्वाध्याय भूमि छ. तथा घgी भारी पियाभूमि मसभूत्राहि परित्यारा भूमि छ 'सुलभे जत्थ बहवे पीढफलगसिज्जासंथारगे' तथा न्या पी8 ५४ विशे३ १२या सा२४ सुगमताथा भणे तेभ डाय तथा 'सुलभे फोसुए उछे अहेसणिज्जे' तथा न्यi प्रासु-मयित्त भने ઉંછ અર્થાત્ એષણય-આધાકદિ સેળ દેથી રહિત અનાદિ ચતુર્વિધ આહારજાત શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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