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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध ३ उ. १ सू० २ तृतीयं ईयांध्ययननिरूपणम् ४९७ फामुए उंछे' नो वा सुलभः प्रासुकः अचित्तः पिण्डपातः, उच्छ:-एषणीये वा तदाह 'बहेसणिज्जे' अथ एषणीय:-आधाकर्मादिषोडशदोषरहितः पिण्डपातो वा नो मुलभो वर्तते इति पूर्वेणान्वयः अपिच 'जत्थ बह वे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा' यत्र-यस्मिन् ग्रामादौ बहवः-अनेकब्राह्मणअतिथि कृपणवनीपकाः शाक्यचरकमभृतिश्रमणाः ब्राह्मणाः अतिथयः कृपणाः दीना दरिद्राश्च वनीपकाः याचकाः 'उवागया' उपागताः सन्ति 'उवागमिसंति य' उपागमिष्यन्ति च, अत एव 'अच्चाइण्णा वित्ती' अत्याकीर्णा-वृत्तिः वर्तते बहु. जनाकीर्णत्वात् जीवनयापनव्यवहारः अतिसंकुचितोऽस्ति, तस्मात् ‘णो पणस्स' नो प्राज्ञस्य साधोः 'णिक्खमणपवेसणाए' निष्क्रमणप्रवेशनाय उपयुक्त ग्रामादिः कल्पते 'णो वा वायणपुच्छणपरियट्टणाणुपेहा धम्माणुजोगचिंताए' नो वा वाचनपृच्छापरिवर्तनधर्मानुयोगप्रेक्षा फलक पाट वगैरह शय्या संस्तारक भी सुलभ नहीं है अर्थात् बिना आयास के पाटफलक वगैरह शयनीय वस्तु भी नहीं उपलब्ध होनेवाली है और 'णो सुलभ फासुए उंछे अहेसिणिज्जे' प्रासुक अचित्त तथा उछ एषणीय आधाकर्मादि सोलह दोषों से रहित पिण्डपात अशनादि चतुर्विध आहारजात भी सुभीता से नहीं मिल सकता है और 'जत्थ बहये समणमाहण अतिहि किवणवणीमगा उवागया जहां पर बहुत से श्रमण शाक्य चरकप्रभृति साधु संन्यासी और बाह्मण अतिथि अभ्यागत कृपण दीन दरिद्रवनीपक याचक वगैरह आये हुए है और-'उवागमिस्संतिय' आनेवाले है और 'अच्चाइण्णा वित्ती' अत्याकीर्णाअत्यंत संकीर्ण वृति है अर्थात् बहत जनों से भरे हुए के कारण जीवन यापन व्यवहार भी अत्यंत संकुचित हैं इसलिये 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए चा' प्राज्ञसंयमशील साधु का निष्क्रमण प्रवेश के लिये उपयुक्त ग्राम नगर वगैरह योग्य नहीं है, एवं 'चायणपुच्छण परियट्टण' वाचन-स्वाध्याय के लिये तथा 'धम्माणुपेहा जोगचिंताए' धर्मानुयोगप्रेक्षा-धर्मविषयक मनन विगैरह અર્થાત વિના પ્રયાસે પાટ ફલક વિગેરે શપનીય વસ્તુ પણ ઉપલબ્ધ થતી નથી. તથા 'णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे' प्रासु४-मयित्त तथा -मेषीय मायाह सोच દ વિનાને અશનાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાત પણ સરળતાથી મળી શક્તો નથી. તથા 'जत्थ बहवे समणमाहण अतिहि' ori मा घण! ॥२॥ श्रम-२॥४य य२४ प्रभृति साधु सन्यासी ग्राम तथा मतिथी तमा 'किवणवणीमगा उवागया' ५५, दीन हरिद्र मन याय: विगेरे मा०या हाय मने 'उवागमिस्संतिय' माना डाय तथा 'अच्चाइ. ण्णा वित्ती' सत्य'सी वृत्ति जय अर्थात् घभासाथी म पाथी न नावान! व्यपा२ ५५Y सत्यत सथित डाय तथा 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए' સંયમશીલ સાધુને નિષ્કમણ કે પ્રવેશ માટે ઉપરોક્ત ગામ નગર વિગેરે ચગ્ય નથી तथा 'णो वा चायणपुच्छणपरियट्टणा' पायन-२५॥ध्याय ५२५। भाटे तथा २७-५8 ५७॥ आ०६३ श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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