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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू. ४२-४३ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ४३९ स्वाध्यायानुचिन्तनाय वा तथाविधोपाश्रयः कल्पते तदुपसंहरन्नाह-'सेवं णचा स संयमशील: साधुः एवं पूर्वोक्तरीत्या ज्ञात्वा विज्ञाय 'तहप्पगारे उवस्सये तथा प्रकारे पूर्वोक्तरूपे उपा. श्रये 'णो ठाणं वा' नो स्थानं वा ध्यानरूपकायोत्सर्गे 'सेज्जं वा' शय्या वा संस्तारकम् 'णिसीहियं वा' निषीधिकां वा स्वाध्यायभूमि 'चेतेज्जा' चेतयेत् कुर्यात तत्र निवासे स्वाध्यायाधुपरोधसंभवात् ।।शू० ४२॥ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उयस्सयं जाणिज्जा इह खलु गाहायइ वा गाहावइभरिया वा गाहावइभगिणी वा गाहावइ पुत्तो वा गाहावइधूए वा गाहावइ सुव्हा वा धाइ वा दालो वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गायं तेल्लेण वा घएण या नवनीएण या अब्भंगेति वा मक्खेति वा णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए जारऽणुचिताए. तहप्पगारे उयस्सए णो ठाणं या सेजं वा जाव चेतेज्जा ॥४३॥ छाया-'स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात् इह खलु गृहपतिर्वा गृहपति भार्या वा गृहपतिभगिनी वा गृहपति पुत्रो वा गृहपति दुहिता वा गृहपति स्नुषा वा धात्री वा दासो वा यावत् कर्मकरी वा अन्योन्यस्य गात्रं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा णिक्खमणपवेसणाए जाय अणुचिंताए' प्राज्ञ समझदार संयमशील साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में निष्क्रमण और प्रवेश के लिये तथा यावत् स्वाध्याय का अनुचिन्तन मनन करने के लिये भी नहीं रहना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के परस्पर मे लडने झगडने कलहादि करने वाले गृहस्थ वगैरह के निकटवर्ती उपाश्रय में रहने से स्वाध्याय वगैरह करने में विघ्नबाधा होने की संभावना रहती है और शान्ति से सामाधिक ध्यानादि भी नहीं हो सकता है-'सेवं णच्चा तहप्पगारे उवस्सए' इसलिये इस प्रकार के उपाश्रय में साधु और साध्वी-'णो ठाणं वा-स्थान ध्यानरूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान ग्रहण नहीं करे एवं 'सेज्ज चा'-शय्या-शयन संस्तारक संथरा भी नहीं पाथरें तथा 'मिसीहियं वा चेतेजा' निषीधिका स्वाध्याय करने के लिये भूमिग्रहण भी नहीं करे ॥ ४२ ॥ अणुचिंताए' यावत् स्यायना मनुयितन मने मनन ४२५। भाटे ५५ २३ नहीं કેમ કે આવા પ્રકારના પરસ્પર લડવા ઝઘડવા કે કલહ કંકાસ કરવાવાળા ગૃહસ્થની નજીકના ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સ્વાધ્યાય વિગેરે કરવામાં વિલન બાધા થવાનો સંભવ રહે मन तिथी सामायि ध्यानाहि ५ २६ शत। नवी 'सेव णच्चा' से प्रभाएन साधु म. साध्या 'णो ठाणं वा' स्थान-ध्यान३५ योस ४२५॥ स्थान अडए ४२७ नही. तभ 'सेज्जं वा' शव्या-सरता२४ सथा। ५५ पाथ२३। नी तथा 'निसीहिय वा चेतेज्जा' निषीधि। मेट पाध्याय १२वा माटे ५ सूमी , ४२१ी नही ॥. ४२॥ श्री माया सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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