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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. २ स. ३१ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ४०७ शाक्यचरकप्रभृति श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथीन् कृपणान् वनीपकान् दीनयाचकदरिद्रान् 'जाव' यावत्-प्रगण्य प्रगण्य प्रत्येक विभागेन 'समुहिस्स' समुद्दिश्य 'तत्थ तत्थ' तत्र तत्र अत्यावश्यक तत्तत्स्थलेषु 'अगारिहिं' अगारिभिः 'अगाराई अगाराणि 'चेइयाणि भवति' चेतितानि निमितानि भवन्ति तान्याह-'तं जहा-आएसणाणि वा' तद्यथा-आयसानि या (आदेशनानि वा) 'आयतणाणि वा' आयतनानि वा 'देवालाई वा' देवकुलानि वा 'जाय भवणगिहाणि या' यावत् सभा वा प्रपा वा भवनगृहाणि वा, 'जे भयंतारो' रे भयत्रातारः भवभीतित्राणकर्तारः भगवन्तो जैनमुनयः 'तहप्पगाराई' तथाप्रकाराणि तथाविधानि पूर्वोक्तरूपाणि' आएसणाणि वा' आयसानि वा आदेश नानि वा 'भवणगिहाणि वा' यायदआयतनानि वा भवनगृहाणि वा 'उवागच्छंति' उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागम्य 'इयशाक्य वगैरह साधु संन्यासीयो को तथा ब्राह्मण अतिथि अभ्यागत, कृपण, दीन, अनाथ दुःखी वणीपक यावको को 'जाय समुद्दिस्स' उद्देश करके 'तस्थ तत्थ' उन उन अत्या आवश्यकस्थलों में 'अगाररिहिं भगाराइं चेतिआई भवंति' बहुत से आगार धर्मसाला वगैरह को बनवा देते है-'तं जहा' जैसे कि 'आएसणाणि या' आयसलोहइस्फात के गृहों को 'आयतणाणि वा' आरस पत्थरों के गृहों को अथवा आयतनों मठमंदिरों को 'देव कुलाणि वा जाव' या देवकुलों देव स्थानों को यावत्-सभागृहों को या प्रपा पानीयशालाओं को या दूसरे प्रकार के भी "भवण गिहाणिया' पूर्वोक्त भवन गृहों को बनवा देते है किन्तु 'जे भयंतारो तहापगाराइं आएसणाणि चा जाच भयणगिहाणि वा उवागच्छंति' जो ये भयत्राता संसार के भय से त्राण करने वाले जैन साघु मुनि महात्मा इस प्रकार के आयस लोहे के गृहों में या यावत् आयतनों में या देव कुलो में या उक्त प्रकार के दूसरे भी नये बनवाये गृहों में या भवन गृहों में आकर २५ 'बहवे समणमाहण अतिहि किवणवणीमए जाव' । श्रम २२४२॥४५ विगेरे साधु सन्यासीयाने तथा प्रमाण माताथ ल्यागत दीन मनाथ हुमी यायाने 'समुद्दि स्स' देशीर 'तत्थ तत्थ' ते ते आवश्य स्थणामा ‘आगारीहिं अगाराइं चेतिआई भवंति' धमा विगेरे मा२-। डस्थ श्राप मनावी मापे छे. 'तं जहा' नेम :'आएसणाणि वा' बोहमय अथवा सारस पत्थरोना । मया 'आयतणाणि वा' मायतन पटले , मठ महि। अथवा 'देवकुलाणि या' हेक्ड। अर्थात् देवस्थानान 'भवणगिहाणि वा' यावत् समा। १२५। पानीय तथा अन्य ५४२ना पूति मन विगेरे मनापी मापे छे, ५२'तु 'जे भयंतारो तहप्पगाराई' सांसा६४ सयथा सोने याचना२ अर्थात् २ साधु ॥ ५४॥२॥ ‘आएसणाणि चा' आयसमा अथवा 'जाव भवणगिहाणि वा' यावत् मायतनामा द्वेषामा अथवा पूरित ४.२ना अन्य नया मनावा गृडामा ‘उवागच्छति' सापीर पास ४२ छ. तथा 'उवागच्छित्ता' श्री माया सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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