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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० १६-१७ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३६७ 'मेहुणधम्मपरियारणाए' मैथुनधर्मपरिचारणाय विषयभोगसेवनार्थम् ‘आउट्टाविज्जा' आकूटयेत् अभिमुखी कुर्यात् तस्माद् एतद् दोष भयाद् ‘अह भिक्खू णं पुव्योवदिट्ठा एस चहण्णा' अथ भिक्षूणां साधूनां कृते पूर्वोपदिष्टा पूर्व तीर्थकृदुक्ता एपा मैथुनधर्मनिवृत्ति विषयिणी प्रतिज्ञा वर्तते 'एस हेऊ' एष हेतुः 'एयं कारणे' एतत् कारणम् 'एस उवदेसे' एष उपदेशः तदाह-'जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए' यत् तथाप्रकारे तथाविधे पूर्वोक्तरूपे सागारिके गृहस्थकुटुम्बपरिवारयुक्ते उपाश्रये ‘णो ठाणं वा सेज्जं या निसीहियं वा' नो स्थानं वा कायोत्सर्गरूपम् शय्यां वा संस्तारकरूपाम् निपीधिकां वा स्वाध्यायभूमिम् 'चेतेज्जा' चेतयेत् कुर्यात तथाविधसागारिकोपाश्रये निवासे सति उक्तरीत्या साधनां संयमात्मविराधना स्यात् तस्मात् साधुभिः सागारिकोपाश्रये निवासो न कर्तव्य इति ।१६। मूलम्-एयं खलु तस्त भिक्खुस्स भिक्खुणीए य सामग्गियं तिबेमि ॥सू० १७॥ पढमा सिज्जा समत्ता ॥२-१॥ छाया-एतत खलु तस्य भिक्षुकस्य भिक्षुक्याश्च सामग्र्यम् इति ब्रवीमि, |सू०१७॥ प्रथमा शय्या समाप्ता। द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः हाविज्जा' अभिमुख कर सकती है इसलिये इस प्रकार के दोष के भय से 'अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हे ऊ, एयं कारणे' एस उवदेसे, अथ उस भिक्षुक साधुओं के लिये वीतराग भगवान तीर्पकर ने पहलेही इस प्रकार की प्रतिज्ञा-घतलायी है अर्थात् संयमनियम का परिपालन करना ही साधु का परम कर्तव्य है यही मुख्य कारण या हेतु भी है ऐसा उपदेश भी दिया है कि 'जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए' इस प्रकार के सागारिक उपाश्रय में 'णो ठाणं या' साधु स्थान ध्यानरूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान ग्रहण नहीं करे एवं 'सेज्जं वा' शय्या--शयन करने के लिये संथरा भी नहीं पाथरे और 'निसीहियं या चेतेज्जा' स्वाध्याय करने के लिये भूमि ग्रहण भी नहीं करे क्योंकि सागा. तथा मा ४२ना होषाना भयथी 'अह भिक्यणं पुव्वो दिवा एस पइण्णा' ये साधुमे। માટે ભગવાન તીર્થકરે પહેલેથી જ આ પ્રતિજ્ઞા કહેલ છે. કે સંયમ નિયમનું પાલન ४२ मे साधुनु ५२म ४तव्य छ. 'एसहेऊ' 20 साधुताना हेतु छ. तथा 'एस कारणे' मे २६ छ अर्थात् मे १२५ सिद्ध ४२५॥ साधु भनेर छे भने 'एस उवएसे भगवाने ४ अपहेश ४२६ छ. है 'तहप्पगारे सागारिए उवस्सए' मा ५२ना १९२५ ५सता डाय तेका २२४ उपाश्रयमा अर्थात् भानमा साधु मे ‘णो ठाणं वा' ध्यान ३५ योत्सा भाटे स्थान हर ४२७ नही. तथा 'सेज्ज वा' शयन ४२१। भाटे सथा। ५ ५।१२। नही मया 'णिसीहिय वा चेतेन्जा' २५॥याय भाटे सूभि प ४२पी नहीं. उभ श्री आया। सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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