SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ आचारांगसूत्रे मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी या, से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा, तं जहा-खंधंसि या मंचंसि वा, मालंसि वा, पासायसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, णपणत्थ आगाढाणागादेहिं कारणेहि, ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा णो चेतेज्जा ||सू० १०॥ ___ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात्, तद्यथा-स्कन्धे या मचे वा णाले वा प्रासादे वा हर्म्यतले वा अन्यतरस्मिन् वा अन्तरिक्षजातेनान्यत्र अगाढा. गाढ़ः कारणैः स्थानं वा शय्यां वा निषोधिका वा नो चेतयेत् ॥ मू. १० ॥ टीका-अथ पुनरपि क्षेत्रशय्यामधिकृत्य विशेषं वक्तुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण उबस्सयं' स भावमिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणस्वरूपम् उपाश्रयं 'जाणिज्जा' जानीयात् 'तं जहा'-तद्यथा 'खंधंसि वा' स्कन्धे वा एकस्मिन् काष्ठस्तम्भे 'मंचंसि वा' मञ्च वा 'मालंसि वा' माले वा मालारूपे काष्ठविशेषे 'पासायंसि वा' प्रासादे वा-द्विभूमिकादौ 'हम्मियतलंसि वा' हऱ्यातले वा 'अण्णयरंसि वा अन्यतरस्मिन् वा-अन्यस्मिन् 'तहप्पगारंसि' तथाप्रकारे-एवंविधे 'अंतलिक्खजायंसि' अन्तरिक्षजाते-उप रितनभागे 'णाणत्थ आपाढाणागा ढेहिं कारणैहि' नान्यत्र आगाटानागढ़ः कारणैः कस्यापि फिर भी क्षेत्र शय्या को ही लक्ष्यकर कुछ विशेषता बतलाते हैंटीकार्थ-'से भिवरख वा, भिक्खुणी वा, से जंपुण एवं उवस्मयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाय को जान ले कि-'तं जहा जैले एक 'खंधसि वा मंचंसि वा मालंसि वा' काष्ठ स्तम्भ पर या मञ्च-मचान पर या मालारूप काष्ठ विशेष (मलित्थम) पर अथवा 'पासायंसि वा' प्रासाद-दोमहला कोठा पर या 'हम्मियतलंसि वा' हर्म्य. तल-ऊपरका महल पर 'अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंलिक्ख जायंसि' इनमें से किसी भी इस प्रकार के अन्तरिक्ष जात में अर्थात आकाश चे स्थित उपाश्रय के ऊपर भाग में स्तम्भ विशेष पर या मचान पर या माला, पर या ક્ષેત્રશયાને જ ઉદ્દેશીને વિશેષ કથન કરે છે टी-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभशीत साधु भने साक्षी ‘से ज पुण एवं उवरसयं जाणिज्जा' ने मानीय डिपामा भावना२ शतना पाश्रयन anid तं जहा' , 'खंधंसि वा' 3 as ना स्तमानी ५२ मथवा 'मंचंसि वा' माया 6५२ ३ 'मालंसि वा' भाग ७५२ मा ३५ ४१०४ विशेषनी ७५२ २०१२ पासायंसि' प्रासा- भाजी५२ मा 'हम्मियतलसि वा' ५२ना भडसनी ७५२ ५५41 'अण्णय रंसि या तहप्पगारंसि' l मा us Y ना 'अंतलिक्खजायंसि' ७५२ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy