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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ९ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ___ ३४३ 'पुरिसंतरकडे' पुरुषान्तरकृतम्-दातृभिन्नपुरुषनिर्मितम् 'बहिया अनीहडे' बहिरनिहृतम्-चहिनानीतम् 'अतदटिए' अतदर्थिकम् न तदर्थं निष्पादितम् 'जाव' यावत्-परिभुक्तम् 'आसेविए' आसेवितम् उपभुक्तम् उपाश्रयं जानीयात् तर्हि 'संजयामेव' संयत एव संयमनियमपालन तत्पर एव 'ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा स्थान वा कायोत्सर्गरूपं, शय्यां वा संस्तारकरूपाम्, निषीधिकां चा स्वाध्यायभूमिरूपां 'चेइज्जा' चेतयेत् कुर्यात् तथा सति संयमविराधनामेति ॥ सू० ९॥ अथ-यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जान ले कि-'पुरिसंतरकडे' यह उपाश्रय पुरुषान्तर कृत है अर्थात् दाता से भिन्न पुरुषने ही इस उपाश्रय को बनाया हैं और 'बहिया णोहडे' बाहर भी उपयोग व्यवहार में लाया गया है तथा 'अत. हिए' अतर्थिक भी है अर्थात् केवल इसी साधु के निमित्त ही नहीं बनाया गया है अपितु अन्य साघु अतिथि के लिये भी बनाया गया है एवं 'जाय आसेविए' यावत्-परिभुक्त भी है एतावता अन्य साधुने इस उपाश्रय में पहले रहकर उपभोग भी करलिया है और आसेवित भी हो चुका है अर्थात् दूसरे साधु के रहन सहन में भी आ गया है ऐसा यदि वह संयमशील साधु और साध्वी जान ले तो 'तओ संजया मेव' संयत होकर-संयम नियम का पालन करता हुआ ही 'ठाणं वा' स्थान-ध्यानरूप कायोत्सर्ग के लिये आवास करे एवं 'सेज्जं वा' शय्या-शयन केलिये संथरा वगैरह भी पाथरे तथा 'निसीहियं वा चेइज्जा' स्वाध्याय केलिये भूमि ग्रहण भी करें क्योंकि पुरुषान्तर कृत वगैरह होने से आधाकर्मादि दोष नहीं हो सकता और प्रतिलेखन और ओघा वगैरह से प्रमार्जन करलेने पर जीव जन्तु की हिंसा भी नहीं होसकती ॥९॥ जाणिज्जा' ने तेयाना नपामा मे मा 3-241 उपाश्रय ‘पुरिसंतरकडे' ५३षान्तर इत छे. मात् तथा अन्य ५३ २४ २॥ ५॥श्रयने मनावेत . तथा 'बहिया णीहडे' मा२ ०५4हारमा सापामा मावस छ, तथा 'अतट्रिए' 340 15 23 साधुने देशीन બનાવેલ ન હોય તેવા તથા અન્ય અતિથિ એવા સાધુઓ માટે બનાવેલ હોય તથા 'जाव आसेविए' यावत् परिभुत ५२ थये डाय अर्थात् मा साधुमासे से उपाश्रयमा રહીને તેને ઉપભોગ કરી લીધેલ હોય તથા આસેવિત અર્થાત્ બીજા સાધુઓના નિવાસ માટે ઉપયોગમાં આવી ગયેલ હોય એ પ્રમાણે તે સંયમશીલ સાધુ અને સાધના જાણવામાં आये तो 'तओ संजयामेव ठाणं वा सेज्ज वा' सयम नियमानुसारी शत पालन ४२ता રહીને ધ્યાનરૂપ કાર્યોત્સર્ગને માટે નિવાસ કર તેમ જ શય્યા શયન માટે સંસ્તારક વિગેરે પણ પાથરવા તેથી સ્વાધ્યાય માટે પણ ભૂમિ ગ્રહણ કરવી કેમ કે-પુરૂવન્તરકૃત વિગેરે પ્રકારથી હોવાથી આધાકર્માદિ દોષ થતો નથી. તથા પ્રતિલેખન અને આઘાથી પ્રમાર્જન કરી લેવાથી જીવજંતુઓની હિંસા પણ થવાનો સંભવ નથી. . . . . श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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