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________________ ३४० आचारांगसूत्रे कायोत्सर्ग स्थानं 'शय्यां वा-संस्तारकस्थानं, निषोधिकां वा-स्वाध्यायभूमि 'चेतेज्जा' चेतयेत्-कुर्यात् ॥ सू० ८॥ मूलम्-से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा, असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा णिस्सेणिं वा उदूहलं वा ठोणाओ ठाणं साहरइ, बहिया वा णिपणखु, तहप्पगारे उबस्सए अपुरिसंतरकडे बहिया अनिहडे अणिसिटे अणतदहिए जाव अनासे. निसृष्ट भी है यानी सभी उस उपाश्रय के स्वामी मालिक अधिकारियों ने इस साधु को रहने के लिये अनुमति भी देदी है एवं 'अत्तट्टिए' अतदर्थिक भी है अर्थात केवल इस साधु के वास्ते ही बनाया नहीं गया है और 'जाव आसे विए' यावत् परिभुक्त भी है अर्थात् अन्य साधु भी इस उपाश्रय में पहले रह चुके हैं तथा आसेवित भी है याने दूसरे साधु भी यहां रह कर उपयोग कर चुके हैं ऐसा यदि जानले तो ध्यानरूप कायोत्सर्ग के लिये 'ठाणं वा सेज्ज वा' स्थानआवास कर सकते हैं एवं शय्या-संस्तारक-संथरा बिछाने के लिये वास कर सकते हैं तथा 'निसीहियं चा चेतेज्जा' स्वाध्याय करने के लिये भी भूमि ग्रहण कर सकते हैं किन्तु प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना अत्यावश्यक समझना चाहिये अन्यथा उक्तरीति से कन्दमूलादि के संम्पर्क से जीव जन्तु की संभावना हो सकती है इसलिये प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके ही रहे यह बात यावत् शब्द से बीतराग भगवान् महावीरस्वामी ने सूचित करदी है और पुरुषान्तर कत वगैरह कहने से उस उपाश्रय में रहने पर आधाकर्मादि दोष नहीं हो सकता यह समझना चाहिये ॥सू० ८॥ નિસૃષ્ટ એટલે કે એ ઉપાશ્રય બનાવનારા બધાએ એ સાધુને ત્યાં વાસ કરવા આપેલ હાય તથા અuિઈ અંતરદર્થિક અર્થાતુ કેવળ આ એક સાધુ માટે બનાવેલ ન હોય તથા 'जाव आसेविए' मी साधुमागे पडेल मासेवित ३२ डाय अर्थात् भी साधुसे। से त्या २ही 6५॥ ४२ डाय तथा उपाश्रयमा 'ठाणं वा' यान३५ ४ायोसा माटे ते स्थान अह ४ सयु तथा 'सेज्ज वा' से था। पाथर। माटे ५ त्यो पास ४२३॥ मन 'निसीहियं वा चेतेज्जा' २१५य ४२१॥ भाट ५५ स्थान अड ३२. ५२'तु प्रति લેખન અને પ્રમાર્જન કરવું તે ખાસ જરૂરી છે. નહીં તે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી કંદ મૂલાદિના સંપર્કથી જીવજંતુઓની હિંસાની સંભાવના રહે છે, તેથી પ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જના કરીને જ રહેવું એ વાત “જ્ઞાા' શબ્દથી મહાવીર પ્રભુએ સૂચિત કરેલ છે તથા પુરૂષાન્તરકૃત વિગેરે કહેવાથી તે ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી કામાદિવિકાર થતું નથી. તેમ સમજવું સૂ૦ લા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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