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________________ ३३८ आचारांगसूत्रे कंदाणि वा' कन्दानि वा 'मूलाणि वा' मूलानि वा 'पत्ताणि या' पत्राणि वा 'पुष्पाणि वा' पुष्पाणि या 'फलाणि वा' फलानि वा, 'बीयाणि वा' बीजानि वा 'हरियाणिवा' हरितानि चा-शब्दलानि 'ठाणाश्रो ठाणं' स्थानात् स्थानम्-स्थानान्तरम् 'साहरति' समाहरति बहिया या णिण्णक्खु' बहिर्वा निस्सारयति निष्कशायति 'तहप्पगारे' तथा प्रकारे तथा विधे उपर्युक्त रूपे 'उक्स्सए' उपाश्रये प्रतिश्रये 'अपुरिसंतरकडे' अपुरुषान्तरकृते दातुपुरुषनिर्मिते 'बहिया अणीहरे' पहिरनिहृते बहिनोनीते 'अणि सि?' अनिसष्टे सर्वस्याम्यनुमते 'जाव' यावत् अनतदर्यिके अपरिभुक्ते 'अणासेविए' अनासेविते उपभोगाविषयीकृते उपाश्रये 'णो ठाणं वा सेज्जं वाणिसीहियं वा नो स्थानं वा कायोत्सर्गस्थानं, शय्यां वा संस्तारकस्थान, निषी. वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जानले कि 'असंजए' असंयत-गृहस्थ श्रावक 'भिक्खुपडियाए भिक्षु की प्रतिज्ञा से अर्थात् साधु के निमित्त 'उदगप्पसूयाणि वा' जल में उत्पन्न होने वालि वस्तुओं को या 'कंदाणि या कन्दो को तथा 'मूलाणि वा' मूलों को या 'पत्ताणि वा पुप्फाणि वा' पत्तों को एवं पुष्पों को या 'फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा' फलों को अथवा बीजों को तथा हरितों को अर्थात् हरे भरे तृण घासों को 'ठाणाओ ठाणं साहरति' एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजा रहा है या 'बहिया वाणिण्णखु' बाहर निकाल रहा है तो 'तहप्पगारे उचस्सए' इस प्रकार के उपयुक्त रूप उपाश्रय में जहां कि जलोत्पन्न कन्दमूल पत्र पुष्प फल बीज हरे भरे घास को एक स्थान से दूसरे स्थान पर गृहस्थ असंयत श्रावक उस उपाश्रय में रहने के लिये आने वाले साधु के निमित्त ले जा रहा हो इस तरह के उपाश्रय में जोकि 'अपुरिसंतरकडे' पुरु. षान्तर कृत नहीं है अर्थात दाता पुरुष ने ही बनाया है एवं 'बहिया अनीहडे' बाहर भी उपयोग में नहीं लाया गया है तथा 'अणिसिट्टे जाव' अनिसृष्ट है अर्थात् सभी अधिकारी स्वामी मालिक से जिस के लिये अनुमति भी नहीं पस्तुमान, 'कंदाणि वा' होने 'मूलाणि वा' भूजाने अथवा 'पत्ताणिवा पुप्फाणि वा' पत्राने पुण्याने 'फलाणि वा बीयाणि वा' गाने २५था भानन अथवा 'हरियाणि वा' दीand my घासाने 'ठाणाओ ठाणं' २४ ४२यामेथी भी ४२या 'साहरति' RSonय छे अथवा 'बहियो वा णिण्णक्खु' मा२ ४९3 छ, तो 'तहप्पगारे उबस्सए' એ ઉપર જણાવેલ ઉપાશ્રયમાં કે જ્યાં જળમાં પેદા થનાર કંદ, મૂળ, પત્ર, પુષ્પ, ફળ કે બી અથવા લીલા ઘાસને એક સ્થાનથી બીજે સ્થાન પર ગૃહસ્થ શ્રાવક એ ઉપાશ્રયમાં २९या भावना२॥ साधुभाने भाट सन्त राय मे प्र४२न! पाश्रयमा रे 'अपुरिसंतरकडे' हात ५३थे २४ मनावर डाय तथा 'बहिया अनीहडे' मा२ ७५योगमi aide नहाय तथा 'अणिसिद्धे' मनिष्ट अर्थात् मघा भासी २२ भाट अनुमति पाणु भाभी नय तथा 'जाय अणासेविए' यावत् साधुन देशीर मनायसाय तया श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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