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________________ ३२२ आचारांगसने ___मूलम्-से जं पुण उयस्तयं जाणिज्जा, अस्सि पडियाए एगं साह. म्मियं समुहिस्स पाणाई भूयाई जीयाई सत्ताई समारब्भ समुदिस्स कीयं पामिच्चं आच्छिज्ज अणिसट्टे अभिहडं आहट्ट चेएति तहप्पगारे उपस्सए पुरिसंतगडे या अपुरिसंतरगडे वा बहिया णीहडे या अणीहडे या अतट्ठिये वा अणतट्रिये वा परिभुत्ते वा अपरिभुत्ते वा जाव अणासेविये वा णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेज्जा एवं बहवे साहम्मिया एगा साहम्मिणी बहवे साहम्मिणीओ ॥सू० ४॥ छाया-स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात्-अनया प्रतिज्ञया एकं साधर्मिकम समुद्दिश्य प्राणान् भूतानि जीवान् सचान समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्राभित्यम् आच्छेद्यम् अनिसृष्टम् अभिहतम् आहृत्य च चेतयति तथाप्रकारे उपाश्रये पुरुषान्तरकृते वा अपुरुषान्तरकृते या पहिनिहते वा अनिहते वा अतदर्भिके अनतदपिके वा परिभुक्ते वा अपरिभुक्ते वा यावत् अनासेविते वा नो स्थानं वा शय्यां वा निषीधिको चा चेतयेत्, एवं बहवः साधर्मिकाः, एका साधर्मिणी, वयः साधर्मिण्यः ॥ सू० ४ ॥ टीका-पुनरपि क्षेत्रशय्यामधिकृत्य उपाश्रयगतान उद्गमादिदोषान् वक्तुमाह-'से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा' संयमवान भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं वसतिं स्थानं जानीयात् कीदृशमुपाश्रयं जानीयादित्याह-'अस्सि पडियाए' अनया वक्ष्यमाणया प्रतिज्ञया-विचारणया 'एग साहम्पियं' एक साधर्मिकं समानधर्माश्रयं साधु 'समुदिस्स' समुद्दिश्य विचार्य 'सेज्ज वा' शय्या-संथरा बिछाने के लिये स्थान करे तथा 'णिसीहियं वा चेतेजा निषीधिका-स्वाध्याय भूमि केलिये निर्धारण करे ॥३॥ टीकार्थ-अब फिर भी प्रकारान्तर से क्षेत्र शरया को ही लक्ष्यकर उपाश्रय गत उद्गमादि दोषों का प्रतिपादन करते हैं-'से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त संयमशील साधु और साध्वी, यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से वसति स्थान रूप उपाश्रय को जान ले कि 'अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं' इस उपाश्रय में इस प्रकार की वक्ष्यमाण रूप से विचारणा रूप प्रतिज्ञा से एक साधर्मिक-समान धर्मवाले साधु को 'समुद्दिस्स' उद्देश्यकर अर्थात् लक्ष्यकर ફરીથી પ્રકારાન્તરથી ક્ષેત્રશસ્યાને જ ઉદ્દેશીને ઉપાશ્રયગત ઉદ્ગમાદિ દેનું પ્રતિ पाहन 3रे छे. टी-'से जं पुण उबस्तयं जाणिज्जा' ते पूर्वरित सयभवाय साधु सने सामी २. 2पक्ष्यमाए रीते सात स्थान३५ उपाय adela -'अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स' 240 श्रयमा २॥ १६यमा ३५ विया२९॥ ३५ प्रतिज्ञाथी श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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