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________________ ३२० आचारांगसूत्रे संस्तारकस्थानमनो वा निषीधिकां स्वाध्यायभूमि वा 'चेतेजा' चेतयेत कुर्यात तथा सति अग्रासुकत्वेन सचित्त नीव हिंगा संभवात् संयमात्मविराधना स्यात् ।।मु० २॥ मूलम्-से भिवस्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्तयं जाणिज्जा अप्पडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पोदयं जाव अप्पसंतागयं तहप्पगारे उबस्सए पडिलेहिता पमज्जित्ता, तमओ संजयामेव ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥सू० ३॥ छाया-स भिक्षुर्या भिक्षुकी वा स यदि पुनः उपाश्रयं जानीयात्-अल्पाण्डम् अल्प. प्राणम् अल्पबीजम् अल्पहरितम् अल्लोषम् अल्पोदकं यावत्-अल्पसंतानकम्, तथाप्रकारे उपाश्रये प्रतिलिख्य प्रमृज्य ततः संयत एव स्थानं वा शय्यां वा निवी धिकां वा चेतयेत् ॥ ० ३॥ टीका-'से भिक्खू वा भिवखुणी वा' समिक्षुर्वा भिक्षुकी वा “से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा' स-भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाश्रयं-वसतिम् जानीयात् तथाहि 'अप्पडं अप्पाण' अल्पाण्डम् --अण्डरहितम, अल्पप्राणाम्-प्रागिरहितम् 'अप्पबीयं' अल्प से युक्त उपाश्रय में कायोत्सर्ग रूप ध्यान के लिये स्थान नहीं करे एवं शय्या संथरा भी वहां पर नहीं बिछावे और निषीधिका-स्वाध्याय भूमि रूप स्थान भी वहाँ पर नहीं करे क्योंकि इस प्रकार के अण्डे प्राणी जीव जात से भरा हुवा उपाय अप्रासुक-सचित्त जीवों से भरे हुए होने के कारण वहां पर हिंसा होने की संभावना रहती है इसलिये इस तरह के सजीव उपाश्रय में रहने से संयम आत्म विराधना होगी, इसलिये ऐसे उपाश्रय में संयमशील साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये, ॥२॥ टीकार्थ-अब अण्डे प्राणी जीव जात से रहित उपाश्रय में संयमशील साधु और साध्वी को रहने के लिये प्रतिपादन करते हैं___ 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त ભૂમિ રૂપ સ્થાન પણ ત્યાં ન કરવું કેમ કે-આ રીતના ઇંડાઓ, પ્રાણિઓ અને જીવ. જંતુઓથી ભરેલ ઉપાશ્રય સચિત્ત જીથી ભરેલ હોવાથી ત્યાં હિંસા થવાની સંભા. વના રહે છે. તેથી આ પ્રમાણેના સજીવ ઉપાશ્રયમાં સંયમશીલ સાધુ અને સાવીએ રહેવું નહીં ! સૂ રા હવે ઇંડા અને જીવજંતુઓ વિનાના ઉપાશ્રયમાં સંયમશીલ સાધુ અને સાધ્વીને રહેવા માટે સૂત્રકાર પ્રતિપાદન કરે છે. ___ -से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' से पूजित सयमयी साधु मने सादा से जं पुण उवासयं जाणिज्जा' ते २ नये ४ामा भावना२ रीते पाश्रयने तणे - 'अप्पडं अप्पपाणं' - उपाश्रय ५६५ छ. अर्थात् ४थी, व्यात नथी, तथा ६५ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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