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________________ ३१८ आचारांगसूत्रे तत्र क्षेत्रशय्यामधिकृत्य प्रतिपादयितुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अभिकंखेज्जा उवस्सयं एसित्तए' अभिकाङ्क्षन् यदि उपाश्रयम् वसतिम् एषि तुम् तहिं 'अणुपविसिज्जा' अनुप्रविशेत् 'गामं वा' ग्रामम् वा 'णगरं वा नगरं वा 'खेडं वा' खेटम् वा 'कबडं वा' कर्बट वा 'मडवं वा' मडंब वा 'पट्टणं वा' पत्तनं वा 'आगरं वा' आकरं वा 'दोणमुहं वा' द्रोणमुखं वा 'जाव' यावत्-संनिवेशं वा 'रायहाणि वा' राजधानी वा अनुप्रविशेदिति पूर्वणान्वयः ॥सू० १॥ ___मूलम्-से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, सअंडं सपाणं सबीए सहरिए सोसे सोदए जाव ससंताणयं तहप्पगारे उबस्सए णो ठाणं वा चेव । खितमि मि खित्ते काले जा जंमि कालंमि,॥२॥ दिविहाय भावसिज्जा कायगए छब्धिहे य भामि' भाये जो जत्थ जया सुह दुह गम्भाइ सिज्जासु ॥३॥ द्रव्य क्षेत्र काल और भाव शय्या में प्रकृत में कौनसी शय्या संयत के योग्य है यह जान लेना चाहिए सचित्त अचित्त एवं मिश्र के भेद से द्रव्य शय्या तीन प्रकार की है । क्षेत्र शय्या कौन क्षेत्र में एवं किस काल में इस प्रकार दो प्रकार की है भावशय्या भी दो प्रकार की है कापगत भावशय्या छ प्रकार की है। भाव में जो जहां जब सुख दुःख आदि से भिक्खू वा भिक्खु. णी वा अभिकंखेजा-उवस्सयं एसित्तए, से अणुरविसिज्जा गामं वा, णगरं वा खेडं वा, कब्बडं चा, मडंबं बा, पट्टणं वा, आगरं चा, दोणमुहं बा, जाव-रायहाणिं वा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी यदि रहने के लिये उपाश्रय रूप आवास की अभिकांक्षा करे अर्थात् ठहरने के लिये उपा. श्रय को ढूंढे तो ग्राम में या नगर में या खेट-छोटा ग्राम में अथवा कर्बट-छोटे नगर में या मडंब-छोटी झोपडी में या पत्तन-विशाल नगर में या आकरखान में या द्रोणमुख-पर्वत की गुफा में या यावत्-संनिवेश-छोटे से कसबा में या राजधानी-राज महल में अनुप्रवेश करे, इस प्रकार क्षेत्र शय्या का प्रतिपा. दन किया गया है ॥ १ ॥ હવે ક્ષેત્રશધ્યાને ઉદ્દેશીને તેનું સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે. 10-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशीस साधु मने साथी 'अभिकखेज्जा उवस्सयं एसित्तए' से २२॥ माटे उपाय ३५ निवासस्थाननी ४२छ। ४२ अर्थात २७॥ भोट 3ाश्रय शोधे 'गाम वा णगरं वा' अभिमानामा 'खेड वा कब्बडं वा' मेट-नाना गाममा मथ। मट-नाना नगरमा मथ41 'मडंबं वा पट्टणं वा' भ -नानी ५डीमा अ५५ ५त्तन-विशास नगरमा 'आगरं वा दोणमुहं वा' ५।३२मा६५मा पर्थतनी मुभा 'जाव रायहाणिं वा' यापत् सनिवेश, नाना समामा भय। रापानीमा 'अणुपरिसिज्जा' प्रदेश ४२३३. ॥ प्रभाव क्षेत्रशय्यानु प्रतिपा- ४२१ भारत छ. ॥ १॥ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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