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________________ ३०२ आचारांगसूत्रे 'जाव' यावत्-तण्डुलं वा 'चाउलपलंबं वा' तण्डुलप्रलम्ब वा 'अस्सि खलु पडिग्गहियंसि' अस्मिन् खलु प्रतिग्रहे पात्रगते पृथुकादिके गृहीतेऽपि 'अप्पे पच्छाकम्मे' अल्पं पश्चात्कम स्यात् 'अप्पे पजवनाए' अल्पम् पर्याय जातम् तुषादिकं त्याज्यं स्यात् इत्येवरीत्या अल्पलेप युक्तत्वात् 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम् तथाविधमल्पलेपयुक्तं 'पिहुयं वा' पृथुकं वा 'बहुरयं वा' बहुरजो वा-बहुरजः कणयुक्तं लाजादिकं 'भुज्जियं वा' भर्जितम् 'मंथु वा' मन्यु वा 'जाव' यावत्-तण्डुलं वा 'चाउलएलंबं वा तण्डुलप्रलम्बं वा एवं बल्लचणकादिकं 'सयं वा जाएज्जा' स्वयं या साघुः याचेत 'परो वा से देजा' परः गृहस्थः श्रावको वा तस्य तस्मै साधवे दद्यात् 'फासुयं' प्रामुकम् अचित्तम् 'एसणिज्ज' एषणीयम्-आधाकर्मादिदोषरहितं 'जाव' यावत्-मन्यमानः ज्ञात्वा लाभे सति 'पडिगाहिजा' प्रतिगृह्णीयात्, तथाविधस्य पृथुकादेरचित्तत्वेन आधाकर्मादिदोषरहितत्वेन च संयमविराधकत्वाभावात् ॥ सू० ११६ ॥ इति चतुर्थी पिण्डैषणा मूलम्-अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा कण को 'अस्सि खलु पग्गिहियंसि' इस पात्र में लेने पर भी 'अप्पे पच्छाकम्मे' थोडा ही पश्चात्कर्म होगा, और 'अप्पे पजयजाए' थोडा ही तुष वगैरह त्याज्य होगा, इस प्रकार अल्प ही लेप से युक्त होने के कारण 'तहप्पगारं पिहुयं वा, बहुरयं वा, भुजियं वा' उस प्रकार का अल्प लेपयुक्त पृथुक को और अधिक रजःकण युक्त लाजा-ममरा वगैरह को या भर्जित-भुङ्गा हुआ चावल वगैरह को 'मंथु वा' और मंधु पूर्वोत्तरीति से भजित चणा वगैरह को या 'जाव चाउलपलंबंधा यावतू-चावल को एवं चावल कणों को एवं बाल वगैरह को 'सयंया जाएज्बा' स्वयं ही साधु याचना करे या 'परोवा से दिज्जा' पर गृहस्थ श्रावक हो उस साधु को देवे तो इस प्रकार के पौआं वगैरह को 'फासुयं एसणि ज्नं जाय' प्रासुक- अचित्त तथा एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित यावत् समझते हुए साघु और साध्वी मिलने पर 'पडिगाहिज्जा' ले लेवे क्योंकि इस तरह के पृथुकादि को अचित्त और आधाकर्मादि दोषों से रहित होने से संयम की विराधना नहीं होगी चतुर्थी पिण्डैषणा समाप्त हुई ॥११६॥ प्रभो ! या विरेने अथवा 'जाव चाउलपलंब वा' यावत् यमाने यानी ४ी तथा १ विरेने 'सय वा जाएज्जा' साधु २५यम 2424॥ ५२-'परोवा से दिज्जा' पति १४ १४ मे साधुने माघे ना l प्रा२ना पो । विगेरेने 'फासुय' आसु४अयित्त तथा 'एसणिज्जं जाव' २५०ीय-मायामात होषाधी २हित यावत् समलने 'पडिगाहिज्जा' साधु सावाये प्रति यायत asa'. ३ मा शतना पीया विरे અચિત્ત અને આધાકર્માદિ દોષ રહિત હોવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી. સૂ. ૧૧૬ છે આ ચેથી પિડૅષણા સમાપ્ત થઈ श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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