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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतकंस्घ २ उ. ११ सू. ११५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २९ जिनकल्पी वा पूर्व पेव भिक्षाग्रहणात्मागेत्र आलोचयेत्-विचारं कुर्यात् कथयेद् वा, तथाहि 'आउसोत्ति वा, भगिणित्ति वा' हे आयुष्मन् ! इति वा, हे भगिनि ! इति वा सम्बोध्य 'एएण तुम' एतेन त्वम् 'असंसटेण हत्थेण संसटेण मत्तेण' असंसृष्टेन हस्तेन संसृष्टेन अमत्रेण अथवा 'संसटेण वा हत्थेण असंसटेण मत्तेण' संसृष्टेन हस्तेन असंसृष्टेन अमत्रेण 'अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिसि वा' अस्मिन् प्रतिग्रहे-पात्रे, पाणौ वा 'णिहटु उचितु दलयाहि' निहत्य-आनीय, उञ्चित्य-उच्चयं कृत्वा ददस्व-देहि 'तहप्पारं' तथाप्रकार तथाविधं पूर्वोक्तरूपम् 'भोयणजायं' भोजनजातम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातम् 'सयं वा णं जाइज्जा' स्वयं वा साधुः खलु याचेत 'परो वा से दिज्जा' परो वा गृहस्थः तस्मै साधये दद्यात्. तथाविधम् ‘कानुय' प्रासुकम् अचित्तम् ‘एसणिज्ज' एषणीयम्-आधाकर्मादिआलोएज्जा-आउसोत्ति वा, भगिणित्तिया' वह पूर्वोक्त स्थविरकल्पीया जिनकल्पी साधु भिक्षा लेने से पहले ही विचार कर कहे कि हे आयुष्मन् ! श्रावक! हे भगिनि ! बहिन ! इस प्रकार संबोधित कर बोले कि 'एएणं तुमं असंसटेण हत्थेण' इस असंमृष्ट हाथ से और 'संसटेण वा मत्तेण' संसृष्ट पात्र से अथवा 'संसट्टेण हत्थेण' संमृष्ट हाथ से और 'असंसडेण मत्तेण' असंसृष्ट पात्र से 'अस्सि पडिग्गहगंसि या, पाणिसि वा णिहटु उचित्त दलयाहि' इस प्रतिग्रह-पात्र में अथवा हाथ में लाकर और एकत्रितकर देदो, इस तरह कहने के बाद तहप्पगारं भोय. णजायं' उस प्रकार का पूर्वोक्त स्वरूप भोजन जात-अशनादि चतुर्विध आहार जात को 'सयंवा णं जाइज्जा' स्वयं ही साधु याचना करे अथवा 'परो वा से दिज्जा' पर-गृहस्थ श्रावक ही उस साधु को देवे और इस प्रकार का स्वयं याचित या गृहस्थ श्रावक के द्वारा दिये गये अशनादि चतुर्विध आहार जात को 'फासुयं एसणिज्जं जाय' प्रासुक-अचित्त और एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित (१२ पी गया wixeyी साधु MA खेत पसi - पियार ४रीने ४९ 3-'आउसोत्ति वा भगिणिति वा' आयुष्मन् श्राप अथवा ५३न ! रीते समधन शन हेतु 3-'एएण तुमं असंसट्टेण हत्थे' २३॥ २५ष्ट नही १२12 यथी भने 'संसद्रेण मत्तेण' सष्ट ५२१ये पात्रयी २५थवा 'संसट्टेण वा मत्तेण' सुष्ट-४२.ये। पाथी भने 'अससट्टेण मत्तेण' मस सूटनही ५२७.ये पात्रथी 'अस्सि पडिग्गहंसि वा' मा पात्रमा 'पाणिसि वा' ५५५। थमा णिहटूटु' साबीन 'उचित्तु दलयाहि' ये ४३रीने माया. याम उझा पछी 'तहप्पगारं भायण जाय' से प्रा२नु पूति २५३५वाणु २०शनाहि यतविय मापन तने 'सयं वा णं जाइज्जा' साधु स्पय तेनी यायना रे अथवा 'परोवा से दिना ગૃહસ્થ શ્રાવક જ એ સાધુ સાધ્વીને આપે તે આ પ્રકારે પિતે યાચના કરેલ અથવા स्थे स्वयमापस Aशनात तुविध माडार जतने 'फासुय' प्रासु अयित्त भने 'एसणिज्जं जाव' मेषीय-माया हाथी २ति यावत् अ५ ४२५॥ योग्य समलने श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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