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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १० सू० १०९-११० पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् २८५ स्युस्तर्हि 'जहेव बहुपरियावन्नं कोरइ' यथैव यहुपर्यापन्नं क्रियते कृतम् 'तहेव कायच्वं सिया' तथैव कर्तव्यं स्यात् तथा च पूर्वोक्त बहुपर्यापन्नभक्तादि विषयकालापकवदेव लवणविषयकोऽप्यालापको वक्तव्यः, तद् लवणं दग्धस्थण्डिलादिप्रदेशे परिष्ठापनीयमित्यर्थः ॥सू० १०९॥ मूलम्-एस खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं त्तिबेमि ॥सू० ११०॥ ॥ नवमो उद्देसो समत्तो ॥ छाया-एतत् खलु तस्य भिक्षुकस्य भिक्षुक्या वा सामग्र्यम् इति ब्रवीमि ॥ सू० ११०॥ टीका-'दशमोद्देशवक्तव्यतामुपसंहमाह-एस खलु तस्स भिक्खुस्स' एतत् खलु आहारविषयकनियमपालनं तस्य पूर्वोक्तस्य भिक्षुकस्य संयमवान् साधोः 'भिक्खुणीए या सामग्गियं' भिक्षुक्याः साध्व्या वा सामग्यम्-समग्रता, साधुसंयमसम्पूर्णता बोध्या 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि-उपदिशामि इति महावीरप्रभुराह इत्यर्थः । सू० ११०॥ दशमोद्देशः समाप्तः। साधुओं को वह बचा हुआ नमक दे देवे, किन्तु-'णो जत्थ साहम्मिया, जहेव बहुपरियावन्न कीरइ, तहेव कायव्वं सिया, जहां पर साधर्भिक साधु नहीं हो तो जैसे ही पहले बहुत पर्यापन्न बचा हुआ भक्त-भात वगैरह विषयक आला. पक कहा है, वैसे ही नमक विषयक आलापक भी कहना चाहिये अर्थात् उस बचा हुआ नमक भी दग्ध स्थण्डिलादि प्रदेश में ही फेंक देना चाहिये अथवा रख देना चाहिये ॥१०९॥ टीकार्थ-अब दशमोद्देशक वक्तव्यता का उपसंहार करते हैं-'एस खलु तस्स भिक्खुस्प्त भिक्खुणीए वा सामग्गियं त्तिबेमि' यही अर्थातू आहार विषयक संयम का पालन करना ही उस भिक्षुक-संयमशील साधु और भिक्षुकीसाध्वी का सामग्र्य-समग्रता है याने साधु संयम की सम्पूर्णता समाचारी है ऐसा भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है ।। ११० ॥ ॥ दशमोद्देशक समाप्त हुआ ॥ परंतु 'णो जत्थ साहम्मिया' या सामि विगेरे साधु न हाय त 'जहेच चहपरियावण्ण कीरइ' रेभ पहेस मई पर्यापन मयेर भाडा२ना समयमा ५ ४३यामा आवेत छ. 'तहेव कायव्वं सिया' मे प्रमाणे नमभा समां माता सम सेवा अर्थात એ બચેલ મીઠાને પણ દગ્ધ Úહિલાદિ પ્રદેશમાં જ રાખી દેવું જોઈએ. જે સૂ૧૦૯ છે હવે આ દસમા ઉદ્દેશાના કથનને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે. Astथ-'एस खलु तस्स भिक्खुस्स भिखुणीए वा' मा ७५२।४त मा.२ सय सयमनु पासन ४२७ मे थे माय साधु मन ला सायीनु 'सामग्गियं त्तिबेमि' समयमा छ. અર્થાત્ સાધુના સંયમની સંપૂર્ણતા છે. એમ ભગવાન્ મહાવીરસ્વામીએ કહ્યું છે. સૂ ૧૧૦ દસમે ઉદ્દેશ સમાપ્ત श्री आया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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