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________________ २८२ आचारांगसूत्रे खनिविशेषोत्पन्नं लवणम् 'उभियं वा लोणं' उभिज्जं वा-लवणाकरजं वा लवणम्, आकरमुद्भिद्य जायमान मुद्भिजमित्युच्यते तथाविधं वा लवणं 'परिभाइत्ता' परिभाज्यविभज्य ‘णीहट्टु दलइज्जा' निहृत्य समाहृत्य दद्यात् तहि 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम्-तथाविधम् विडं वा उद्भिज्ज वा विभज्य दीयमानम् 'पडिग्गह' प्रतिग्रहगतम् लवणम् 'परहत्य सिवा' परहस्ते वा-गृहस्थहस्तगतं वा 'परपायंसि वा परपात्रे वा-गृहस्थपात्रगतं वा 'अफा. मुयं' अप्राप्नुकम् अकल्पनीयं सचितं वा शस्त्र परिणतत्वाद् अचितं वा 'अणेसणिज्ज' अने. पणीयम् आधाकर्मादिदोषदुष्टं 'जाव' यावत्-मत्त्वा 'लाभे संते' लाभे सति 'णो पडिगा. हिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात् तथा विधस्य लवणस्य साधनां साध्वीनाश्च अकल्प्यत्वात् संयमविराधना स्यात् यदितु 'से आहञ्च पडिगाहिए सिया' स भिक्षुः आहृत्य कदाचित् प्रतिकदाचित उस साधु के अन्तः प्रतिगृह-पात्र के अन्दर कोई गृहस्थ श्रावक 'बिडं वा लोणं' विडलवण-खान विशेष में उत्पन्न विडनमक को लाकर अथवा 'उभियं वालोणं' उभिजलवण, लवणाकर में उत्पन्न होनेवाला नमक, जोकि आकर खनि को उभेदन कर निकलने वाला होता है उसको उदभिज्जलवण कहते हैं अर्थात् सिन्धा नमक को 'परिभाएत्ता' विभाजन करके इकट्ठा कर ‘णीहट्टु' लाकर 'दलइन्जा' लाकर दे देबे तो 'तहप्पगारं पडिग्गह' इस तरह का बिडनम कका या सिन्धा नमक को, जो कि उक्तरीति से विभाजनकर दिया जाता है उस प्रकार के साधु के पात्र में रक्खे गये नमक को अथवा 'परहस्थंसि वा' पर गृहस्थ श्रावक के हस्तगत नमक को या 'परपायंसि बा' गृहस्थ श्रावक के पात्र गत नमक को 'अप्फासुयं' अप्रासुक अकल्पनीय-नहीं खपने योग्य या सचित्त अथवा शस्त्रपरिणत होने से अचित्त ही क्यों नहो फिर भी 'अणेसणिज्जं जाव' अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त यावतू-समझ कर मिलने पर भी साधु और साध्वी को 'णो पडिगाहिज्जा' नहीं लेना चाहिये क्योंकि उस प्रकार का नमक साधु और साध्वी के योग्य नहीं होने से लेने पर संयम विराधना होगी 'से आहच्च पडिगाहिए सिया' यदि कदाचित् उस भाव साधु को वह गृहस्थ थयेस मिडनाभनु १ (भी) अथवा 'उभियं वा लोणे' भाभाथी मादीन 3 समर्थात् सिधारने 'परिभाएत्ता' विलास पूर्ण 'निहटु दलइज्जा' खावीन साये तो 'तहप्पगार' तेव। ४२ मिनभ भ१२ सिधाबु त शत लina मापेर होयत 'पडिग्गह' पात्रमा मापस भीडा अथवा 'परहत्थंसि वा' स्थ श्रायन सायमा २७स भीने अथवा 'परपायसि वा' स्थान पाम ते भी य त ५५ ते 'अप्फासुय अणेसणिज्ज' सचित्त पाथी भयनीय मया शस्त्र परिणत थयेस पाथी मयित्तायत ५ ते मनेषणीय-आधार होषोथी युक्त 'जाच' यावत् समलने 'णा पडिगाहिज्जा' भणे ते ५ ते साधु सीमेवे नही भ है ये शतनु मी ते साधु मन सामान सयभनी विराधना थाय छे. 'से आहच्च पडिगाहिए सिया' हाय थे श्री. ॥॥२॥ सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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