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________________ मर्मप्रकाशिका टीका थुतस्कंध २ उ. १० सू० १०७ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् बीयगं बहुकंटगं फ़लं जाव लामे संते णो पडिगाहिज्जा ॥ सू० १०७॥ छाया - स भिक्षु भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यदि पुनरेवं जानीयातू - बहुबीजकं बहुकण्टकं फलम् अस्मिन् खलु प्रतिग्रहे अल्पं स्यात् भोजनजातं बहू ज्झितधर्मिक तथाप्रकारं बहुबीजकं बहुकण्टकम् फलं यावत् लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयात्॥ म्० १०७॥ टीका-पिण्डैषणाया अधिकारात् बहुबीजकादिफलं निषेधितुमाह से मिक् वा भिक्खुणी वा' स पूर्वोक्ती संयमवान् भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गाहावइकुल' गृहपतिकुलं - गृहस्थगृहम् ' जाव' यावत् - पिण्डपातप्रतिज्ञया - भिक्षाग्रहणार्थ 'पविट्ठे समाणे' प्रविष्टः सन् 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' स भाव भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीय त् तद्यथा- 'बहुबीजगं' बहुबीजकम् - अधिकचीजयुक्तम् 'बहुकंटगं' बहुकण्टकम् - अधिककण्टकयुक्तम् ' फलं' फलम् जाम्बफलप्रभृति बहुबीजम् शृङ्गाटकप्रभृतिफलं बहुकण्टकं बोध्यम् 'अहिंस खलु पडिगहियंसि' अस्मिन् खलु प्रतिग्रहे- गृहस्थपात्रे स्थापितम् 'अप्पेसिया भोयणजाए' अल्पं स्यात भोजनजातम् - अल्पमेव ग्राह्याहारजातं भवेत् 'बहुज्झियधम्मिए' बहूज्झितधर्मिकं अत्यधिकत्याज्यनिस्सारमागं स्यात्, अतएव 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम्-तथाविधम् पूर्वोक्तरूपम् २७३ टीकार्थ-पिण्डेषणा का अधिकार होने से अधिक वीज वाले फलों का भी प्रतिषेध करते हैं-' से 'भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, गाहावइकुलं जाव पविट्ठे समाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में यावत्-पिण्डपात की प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षालाम की आशा से अनुप्रविष्ट होकर वह 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' वह साधु और साध्वो यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जान लेकि- 'बहुबीयर्ग' यह जामफल सीता फल वगैरह फल बहुत बीज बाला है एवं 'बहुकंटगं बा' यह शृंगाटक सिंगारहार का फल अधिक कष्टक- फांटवाला है इसलिये 'अस्सि खलु पडिग्गहियंसि' इस प्रतिग्रह में अर्थात् गृहस्थ श्रावक के पात्र में स्थापित - रक्खा हुआ भोजन जात 'अप्पेसिया' थोडा ही ग्राह्य भाग वाला होगा किन्तु 'बहुउज्झिय धम्मे' बहुत तो अधिक त्याग करने योग्य निस्सार भाग वाला ही होगा इसलिये 'तहप्पगारं बहुबीयगं ટીકા –પિડેષણાના અધિકાર હાવાથી અધિક ખી વાળા ફળાના પશુ નિષેધ કરવામાં मा . - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविट्टे समाणे' ते पूर्वोक्त संयम વાન સાધુ અને સાધ્વી ગૃહપતિ ગૃહસ્થ શ્રાવકના ઘરમાં ચાવત્ પિંડપાતની પ્રતિજ્ઞાથી अर्थात् लिक्ष झालनी आशाथी प्रविष्ट थर्धने ' से जं पुण एवं जाणिज्जा' ते साधुना सीताइज विगेरे इजो जहु की पाना होय छे तथा 'बहुकंटगं वा' मा सी गाडाना जो अधिक अंटावाणा छे. तेथी 'अहिंस खलु पडिगहियंसि' मा प्रतिग्रहमा अर्थात् ग्रहस्थ श्रावना पात्रमां राजी भूल आहार त 'अपेसिया' थोडे लाग सेवा साय: छे, परंतु 'बहुउज्झिम्मे' पधारे लागते युवा ले मे रीते यावे ! - 'बहुबीयगं' या लभ आ० ३५ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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