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________________ २७२ आचारांगसूत्रे -सिम्बलीं इक्षुशाखां वा 'उच्छुडालगे वा' इक्षुशालकाग्रं वा इक्षुशाखाप्रभागं वा 'जाव' यावत् - वा मुद्गादीनामचित्तफलीं वा 'सिंबलथालगे वा' सिम्बलीस्थालकं वा - वालप्रभृतीनामचित्तफलिक वा 'अष्कासुर्य' अप्राकम् सचित्तम् ' अणेसणिज्जं' अनेषणीयम् - आधा कर्मादिदोषदुष्टम् 'जाव' यावत् - मन्यमानोज्ञात्वा लाभे सति 'जो पडिगाहिज्जा' जो प्रतिगृह्णीयात्, तेषां खलु इक्षुपर्व मध्यप्रभृतिमुद्गादिफलीनाम् अल्पग्राह्य सारभागतया अत्यधिक परित्याज्य निस्सारभागतया च साधूनां संयमविराधकत्वेनाकल्प्यत्वात् ।। सू० १०६ ।। मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविट्ठे समाणे से जं पुण एवं जाणिजा, बहुबीयगं बहुकंटगं फलं अस्सि खलु पडिहिसि अप्पे सिया भोयणजाए बहुउज्झिय धम्मिए-तहप्पगारं बहुगन्ना का छिलका को एवं 'उच्छुमेरगं वा' इक्षुमेरक-रस रहित गन्ने का अग्रभाग को या 'इच्छुसलिगं वा' इक्षु शालक- गन्ने की डाल को एवं 'उडालगं वा' इक्षु शाखा खण्ड- गन्ने की डाल का छोटा छोटा टुकडे को 'जाव' याचत् दूसरे भी गन्ने के भाग को जोकि अधिक भाग सार रहित होने से छोडने योग्य है और थोडा ही भाग सार युक्त होने से ग्रहण करने लायक है इस तरह के सभी गन्ने का भाग को एवं 'सिबलिं वा' सिम्बली मूंग वहेरह की छोमी को और 'सिंबलीथालगं वा' सिंबली स्थालक-छीमी के गुच्छा को भी इस प्रकार के होने पर 'अल्फासुर्य' अप्रासुक-सचित और 'अणेस णिज्जं ' अनेषणीय- आधा कर्मादि दोष युक्त 'जाव णो पडिगाहिज्जा' यावत्-समझकर साधु और साध्वी नहीं ग्रहण करे क्योंकि उन गन्ने के पर्व का मध्य भाग वगैरह के और मूंग- केराव - मटर वगैरह की फली के थोडे ही भाग सारयुक्त और अधिक भाग सारहीन होने से उन सब को भिक्षा के रूप में ग्रहण करने पर संयम विराधक होने से साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये, अन्यथा लेने पर संयम की विराधना होगी ॥ १०६ ॥ छोडाने तथा 'उच्छुमेरंग वा' रस विनाना शेरडीना आगणना लागने अथवा 'उच्छुसालगं वा' शेरडीनी शामाने तथा 'उच्छुडालंग वा' शेरडीनी डोजना नाना नाना भुडाने तथा 'जाव सिबलिं वा' यावत् भगवटाथा विगेरेनी सिंगने तथा 'सिंबलियालगं वा' सींगना गुच्छाने ? सेवी रीतनी होय तो 'अप्फासुय' सचित्त भने भनेषणीय भाषा महि દોષ યુક્ત યાવત્ સમજી ને સાધુ કે સાધ્વીએ ગ્રહણ કરવા નહી કેમ કે-એવા શેરડીની ગાંઠના મધ્યભાગ વિગેરે તથા મગ ચાળા વટાણા વિગેરેની સીંગના ચેડા જ ભાગ સાર વાળા અને વધારે ભાગ સાર વગરને હેવાથી તે બધાને ભિક્ષા તરીકે લેવા ન જોઇએ, ते पाथी संयमनी विराधना थाय छे. ॥ सू. १०६ ॥ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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