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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ९ ० ९४ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् २३७ गृहपतिदुहिता वा - गृहस्थकन्या वा 'सुहे वा' स्नुषा वा पुत्रवधूः 'जाव कम्मकरि वा' यावत्दासो वा दासी वा कर्मकरो कर्मकरी - परिचारिका वा स्यात् 'तेसि च णं एवं बुत्तपुव्वं भवई' तेषाञ्च खलु श्रद्धालु गृहपतिप्रभृतीनां श्रावकादीनां मध्ये परस्परम् एवं वक्ष्यमाणरीत्या उक्तपूर्व प्रथमं वर्तालापो भवति, तथाहि 'जे इमे भवंति समणा' ये तावद् इमे श्रमणाः साधवो भवन्ति - सन्ति 'भगवंता सीलवंती' भगवन्तः शीलवन्तः अष्टादशशीलानामङ्गसहस्रधारिणः 'वयवंतो गुणवंतो' व्रतवन्तः - रात्रिभोजनविरमणरूप षष्ठव्रत सहित पञ्चमहाव्रतस्य धारिणः, गुणवत सहित वन्तः - पिण्डविशुद्धयाधुत्तरगुणयुक्ताः 'संजया' संयताः इन्द्रियाणां नो इन्द्रियाणाञ्च संयमशालिनः 'संबुडा' संवृताः - संवरवन्तः पिहितास्रवमार्गाः 'बंभयारी' ब्रह्मचारिणः नवविधब्रह्मचर्यरक्षणतत्पराः 'उवरया मेहुणाओ धम्माओ' उपरताः निवृत्ताः मैथुनाद्धर्मात् सर्वथा विषयभोग सम्पर्करहिताः 'णो खलु एएसिं कप्पड़' नो खलु एतेषां संयमशीलवतादिधारिणां पति- गृहस्थ श्रावक के दुहिता - लडकी हो, 'सुव्हावा जाय कम्मकरी वा' स्नुषापुत्रवधू या - यावत् दास हो या दासी हो, या कर्मकर नोकर हो, या कर्मकरीनोकरानी हो सकती है 'तेसिं चणं एवं बुत्तपुण्वं भवह' उन सभी श्रद्धालु गृहस्थ श्रावकों के मध्य में परस्पर इस प्रकार वक्ष्यमाण रूप से पहले वार्तालाप होता है कि 'जे इमे भवंति समणा' जो ये श्रमण 'भगवंतो' सीलमंता' भगवान् शीलवाले अर्थात् अठारह सहस्त्रां शीलों के अङ्ग को धारण करने वाले और 'वयमंता गुणमंता' पिण्ड विशुद्धि आदि उत्तर गुण युक्त एवं रात्रि भोजन विरमण रूप छट्टा महावत को धारण करने वाले 'संजया' संयमशील अर्थात् इन्द्रियों और नो इन्द्रियों का संयम करने वाले और 'संवुड' संवृत-संवर युक्त अर्थात् आस्रव मार्ग को बन्द करने वाले और 'बंभवारी' नवविध विशुद्ध ब्रह्मचर्य का रक्षण करने में तत्पर और 'उबरया मेहुणधम्माओ' विषय भोग रूप मैथुन रूपअधर्म के सम्पर्क से रहित साधु होते हैं इसलिये 'णो खलु एएसिं कप्पर आहा अथवा 'हे वा' पुत्रवधू होय अथवा 'जाब कम्मकरी वा' यावत् हास होय हे हासी हाय अगर नर नाराणी होय 'तेसिच णं एकं वुत्तपुब्बं भवइ' से मघा श्रद्धा श्राप भां या नीचे प्रमाणे परस्परमा वार्तासाप थाय छे -जे इमे भवंति समणा' मा श्रम थाय छे 'भगवंता सीलमता' भगवान् शीसवाणा अर्थात् अढार हुन्नर अारना शीलेने मंगे धारा १२वावाजा तथा 'वयमंता गुणमंता' पिंड विशुद्धिया विगेरे उत्तरगुणु युक्त तथा रात्रिलोभन विरमगु३प छट्टा मेवा पांच महाव्रतने धारा ४२वापाणी 'संजया' સયમશીલ અર્થાત્ ઈંદ્રિયા અને નાઇટ્રિયાના સયમ કરનારા તથા ‘સંપુ’ સંવર યુક્ત अर्थात् भाव भार्गने अंध १२नारा तथा 'बंभयारी' नव प्राश्न' श्रह्मचर्य तु रक्षण उरवामां तह २ तथा 'उवरया मेहुणधम्माओ" विषय लोग३य मैथुन धर्म थी रहित साधु होय छे. तेथी 'णो खलु एएसि कप्पइ' मा पूर्वोक्त संयमशील प्रत धारणु उरवावाणा साधुओने 'आहाकम्मिए શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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