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________________ २३० आचारांगसूत्रे जाणिज्जा' स विरतोभिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'लसुणं वा' लशुनं वा लशुननामककन्द विशेषम् 'लसुणपत्तं वा' लशुनपत्रं वा लशुनहरितपत्रं वेत्यर्थः 'लसुणनालं वा' लशुननालं वा-लशुननालमूलवेत्यर्थः 'लसुणकंदं वा' लशुनकन्दं वा लशुनकन्दमूलं वा 'लसुणचोयगं वा' लशुनत्वचं-लशुनबाह्यत्वचं वा 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' अन्यतरद वाअन्यद् वा किमति तथाप्रकारम्-लशुनसदृशं पलाण्डु गृञ्जनादिकं कन्दजातीयम् 'आमगं' आमकम्-अपरिपक्वम् 'अशस्त्रपरिणतम् अशस्त्रोपहतम् 'अप्फासुर्य' अप्रासुकम् सचित्तम् 'अनेषणीयम् आधाकर्मादिदोषदुष्टं 'जाव' यावत्-मन्यमानो ज्ञात्वा 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, तथाविधलशुनप्रभृति कन्दविशेषाणामपरिपक्वानाम् अशस्त्रोपहतानाम् सचित्तत्वेन आधाकर्मादिदोषदुष्टत्वेन च संयमात्मविराधकतया लशुनादिकम् साधुभिः साध्वीभिश्व न ग्राह्यम् ॥ सू० ९० ॥ गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में यावत्-पिण्डपात की प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षा लेने की इच्छा से अनुप्रविष्ट होकर वह साधु और साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जान ले कि-'लसुणं वा' लसुणपत्तं वा यह लशुन या लशुन का पत्ता या 'लसुणणालं वा लसुणकंद वा' लशुन का नाल-मूल या लशुन का कन्द या 'लसु. चोयं वा लशुन का त्वचा छिलका या 'अण्णयरं वा तहप्पगारं कंदजायं' दूसरा ही कोइ अन्य इस तरह का कन्द जात-प्याज कांदा वगैरह यदि 'आमम्' आम अपरिपक्व-कच्चा है और 'असत्थपरिणयं जाव' अशस्त्रपरिणत-अशस्त्रोपहत चीरा फाडा नहीं है ऐसा जान ले या देख ले तो इस प्रकार के अपरिपक्व कच्चे और चीरफाड से रहित लशुन प्याज वगैरह कन्द को अप्रासुक सचित्त तथा यावत -संयमवान् साधु और साध्वी 'णो पडिगाहिज्जा' उस को नहीं ग्रहण करे क्योंकि इस तरह का कच्चा और बिलकुल ताजा, जोकि चिरफाड से भी रहित है ऐसा लशुन प्याज वगैरह कन्द सचित्त और आधाकर्मादि दोषों से दूषित होने से संयम आत्म विराधक होता है इसलिये संयम पालनार्थ इस तरह का लशन 'से जं पुण एवजाणिज्जा' तमना नपामा ४ा है लसुणं वा लसुणपत्तं वा' । सय २५५41 ससना पान २५५ 'लपुणणालं वो लसुणवंदं वा' सना भूण अथवा सना है अथवा लसुणचोयं वा' सनी छ। मथवा 'अण्णयर वा तहप्पगार कंदजायं' मी तेना 24 त मेरो जीविगेरे ने 'आमगं' ५। पाना या य तथा 'असत्यपरिणय' शख ५रिणत थयेस न डाय अर्थात् तने पिस हैयार न डाय तवा हाय तो मापा प्रा२ना 'अफासुयं जाव' सचित्त यावत् मनेषणीय मायामादि षषित पानी ‘णो पडिगाहिज्जा' तर ५९ ४२५॥ नही કેમ કે આવી રીતના કાચા અને તાજા કે જેને ચીરેલ કાપેલ હોય એવા લસણ ડુંગળી વિગેરે કંદે સચિત્ત અને આધાકર્માદિ દેવાળા હેવાથી સંયમ આત્મ વિરાધક થાય છે श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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