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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ७ ० ८२ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् २१५ वा तहप्पगारं' अन्यतरद् वा-अन्यद् वा किमपि तथा प्रकारम्-उपर्युक्त अश्वत्थादि किशलयसदृशम् 'पवाल नायं' प्रवालजातम् नूतनकिशलयसामान्यम् 'आमगं' आमकम् अपरिपक्यम् 'असत्थपरिणयं' अशस्त्रपरिणतम् न शस्त्रेण परिणती कृतम् अशस्त्रोपहतमित्यथः 'अप्फामुयं' अप्रासुकम्-सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेषणीयम् आधाकर्मादिदोषदुष्ट जाव' यावत् मन्यमानः लाभे सति 'नो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात् तथाविधाश्वत्थादि किशलया नाम् अपरिपक्वानाम् अशस्त्रपरिणतत्वेन सचित्तत्वात् आधाकर्मादिदोषदुष्टत्वेन च संयमात्म विराधकत्वात् साधुभि ननूतनकिशलयरूपं प्रवालम ग्राह्यम् ।।८२॥ ___ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाय पविटे समाणे से जं पुण एवं सरडुयजायं जाणिज्जा, तं जहा-अंबसरडुयं वा, कवित्थसरडयं वा, दाडिमसरडुयं वा, विल्लसरडुयं वा, अण्णयरं वा तहप्पगारं शल्लकी प्रवाल-शल्लकी नामके वृक्ष विशेष का नया पत्ता है या 'अण्णयरं चा तहप्पगारं पचालजायं' अन्यतर-अन्य किसी दूसरे वृक्ष का ही नया पत्ता है किन्तु ये सभी अश्वत्थादि के नये पत्ते 'आमगं' आमक-अपरिपक कच्चे हैं और 'असत्थपरिणयं' अशस्त्रपरिणत-अशस्त्रोपहत है अर्थात् चीरे फारे नहीं है तो ऐसे पिप्पल झाड वगैरह के नये पत्ते जो कि कच्चे हैं और शस्त्रपरिणत नहीं है अर्थात् चीरे फाडे भी नहीं गये है तो ऐसे नये पत्ते का 'अप्फासुयं अणेसणिज्जं जाव' अप्राप्सुक सचित्त और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से दूषित यावत्-समझ कर उस प्रकार के नये पत्ते को संयमशील साधु और साध्वी 'णो पडिगाहिज्जा' नहीं ग्रहण करे क्योंकि इस प्रकार कच्चे और नहीं चीरे फाडे गये नये पत्ते सचित्त और आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने के कारण साधु और साध्वी के लिये संयम आत्म विराधक होते हैं इसलिये साधु और साध्वी संयम पालनार्थ इसे ग्रहण नहीं करे सू०८२।।। वा' नीपू२ नहीनी पांसेना वृक्ष विशेषना नवा पान छ. २५५१। 'सल्लइपवालवा' शीना मनावृक्ष विशेषना नवा पान छ. 1241 'अण्णयर वा तहप्पगार पवालजाय' भी तना 40 वृक्षाना नवा पान के परंतु ते पान 'आमगं' ५५२५४५ या छे. तेभर 'असस्थपरिणय' शस्त्र परित थयेस नथी. अर्थात् तेने यो२० , पेस नथी तो तेने 'अप्फासुय' मासु सयित्त भने 'अणेप्सणिज्ज' मनपणीय 'जाव' यावत माहिषयी દૂષિત સમજીને એવા પ્રકારના નવા પત્તાઓને સાધુ સાધ્વીએ ગ્રહણ કરવા નહીં કેમ કે આવા પ્રકારના કાચા અને ચીર્યા ફેડડ્યા વગરના નવા પગે સચિત્ત અને આધાકદિ દેથી યુકત હોવાથી સાધુ સાધ્વીને સંયમ આત્મ વિરાધક થાય છે. તેથી સંયમશીલ સાધુ સાવીએ તેને વજર્ય કરવા જોઈએ. સ. ૮૨ છે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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