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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ७ सू० ७३ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् अम्लीभूतम् परिवर्तितस्वादं वर्तते 'वुक्कंत' व्युत्क्रान्तम्-अतिक्रान्तरसम् 'परिणयं परिणतम्-परिवर्तितवर्णादिकम् 'विद्धत्थं' विध्वस्तम्-शस्त्रपरिणतम् पानकजातम् ‘फासुयं' प्रामुकम्-अचित्तम् 'एसणिज्ज' एषणीयम् आधाकर्मादिदोषरहितं मन्यमानः ज्ञात्या 'पडिगाहिज्जा' प्रतिगृह्णीयात् अचित्तत्वाद् आधाकर्मादिदोषरहितत्वाच्च संयमात्मदातृ विराधनाया असंभवादिति ॥ सू० ७३ ॥ ___ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पाणगपडियाए पविढे समाणे से जं पुण एवं पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा, जवोदगं वा. आयाम या, सौवीरं वा, सुद्धवियडं वा, अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं पुत्वामेव आलोएजा आउसोत्ति वा, भगिणि त्ति वा, दाहिसि मे एती अण्णयरं पाणगजायं ? से सेवं वयं परो वएज्जा आउसंतो समणा तुमं चेवेदं पाणग जायं पडिग्गहेण वा उस्सिचियाणं उस्सिचियाणं ओयत्तियाणं गिण्हासाध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरीति से जान ले कि यह पानी-धावमोदक वगैरह "चिराधोयं बहुत काल से प्रक्षालित किया हुआ यह पानी है अर्थात् चावल वगैरह को बहुत ही पहले धोकर रक्खा हुआ यह पानी है अतएव अंबिलं' अम्ल खट्टा भी हो गया है याने इसपानी का स्वाद भी बदल गया है तथा 'युक्त' इसपानी का रस भी व्युत्क्रान्त-बदल गया है और 'परिणयं' इसानी का वर्ण भी बदल गया है और 'विद्वत्थं' यह पानी शस्त्रपरिणत भी हो चुका है अर्थात् इसपानी का जीव भी शस्त्रपरिणति से युक्त है अतएव यह धाव. नोदक वगैरह 'फासुयं' अचित है और 'एसणिज्ज' आधाकर्मादि दोषों से रहित भी है ऐसा यावत् 'मन्यमान:' मानते हुए अर्थातू समझकर साधु और साध्वी 'जाव पडिगाहिज्जा' उस विशुद्ध पानी को ग्रहण करे, एतावता इस प्रकार के पानी को लेने में दोष नहीं है, ॥७३॥ 'चिराधोय' in समयथी पायेस भ पाणी छे. अर्थात् योमा विगैरेने या समय पडता घौधन रामपामा भाव ॥ पाणी छे. तेथी 'अंबिल' मा ५५ ५ ५यु छ. અર્થાત આ પાણીને સ્વાદ પણ બદલાઈ ગયું છે, તથા “કુd” આ પાણીને રસ પણ READ गये। छ. 'परिणय' । पाणीना २५५ मा यो छे. 'विद्वत्थ' मा पारी શા પરિણત પણ થઈ ગયેલ છે. અર્થાત્ આ પાણીના છ પણ શસ્ત્ર પરિણતીથી યુક્ત छ. तेथी । पापनाts 'फासुय' मयित्त छ. तर 'एसणिज्ज' भाषा हाथा २हित ५५ छे. मे भानार 'जाव पडिगाहिज्जा' यावत् तेवा शुद्ध पाणीन अडए २७ આવા પ્રકારનું પાણી લેવામાં જ રહેતું નથી . સ. ૭૩ છે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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