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________________ १८८ आचारांगसूत्रे ददस्य देहीत्यर्थः, तथासति वायुकायिकजीवहिंसाया असंभवेन संयमात्मदातृविराधना न स्यादिति, किन्तु 'से सेवं वयंतस्स' अथ तस्स भिक्षुकस्य एवम् उपयुक्तरीत्या वदतः शूर्णादि संचालननिषेधं कुर्वतोऽपि 'परो मुप्पेण वा' परः दाता गृहस्थः यदि शूर्षेण वा 'विहुयण वा नालियंटेण वा' व्यजनेन वा तालवृन्तेन वा-तालपत्रनिर्मितव्यजनेन 'पत्तेण वा' पत्रेण पल्लवरूपेण 'जाव' यावत् शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पिच्छेन या पिच्छहस्तेन वा चैलेन या चैलकर्णेन वा हस्तेन या मुखेन वा फूत्कृत्य-फूत्कारं कृत्वा 'वीइत्ता' वीजयित्वा व्यजनं चालगिस्या व्यजनेन पवनसंचारं विधायेत्यर्थः 'आहटूटु दलइज्जा' आहृत्य-मानीयअशनादिकं दद्यात् नहि 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम् शूदिसंचालनद्वारा शीतलीकृतम् अत्युष्णम् 'असणं वा पाणं या खाइमं वा साइमं वा' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा चतुविघमाहारजातम् 'अप्पासुयं अप्रासुकम् सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेषणीयम्-आधाकर्माहिंसा होगी और मुखादि से फूके बिना ही देने से वायु कायिक जीव की हिंसा नहीं होगी और संयम आत्म दात विराधना दोष भी नहीं होगा, किन्तु यदि से 'सेवं वयंनस्स परो' वह गृहस्थ श्रावक एवं' उत्तरीति से 'वयंतस्स बोलते हए 'तस्स' उस साधु को यदि 'सुप्पेण' सूप से या 'विहुयणेण वा व्यजनपंखा से या 'तालियंटेण चा' ताल पत्र के पंखा से या 'पत्तण वा' पल्लव से या 'साहाए वा' डाल से या 'साहाभंगेण वा' छोटी डाल (टेहनी) से या 'पिहणेण वा' मोर के बई-पांख से या 'पिहुणहत्थेण वा' मोर के पिच्छ का पंखा से या 'चलेण वा वस्त्र से या 'चेलकन्नेण वा वस्त्राश्चल से या 'हत्थेण वा' हाथ से या 'मुहेण वा जाव' मुख से या यावत्-फूक कर या पंखा आदि को चलाकर (होंककर) पवन का संचार करके अत्युष्ण अशनादि चतुर्विध आहार जात 'आहटु दल एज्जा तहप्पगारं लाकर देता उस प्रकारका अत्यन्त गरम 'असणं चा पाणं या खाइम वा साइमं वा' अशनादि आहार को मुखादि द्वारा फूक कर या पंखादि से होक कर ठण्डा किये जाने से वायु कयिक जीव की हिंसा होने के कारण उस नही, परतुन्ने ‘से सेबंवयंतस्स' २॥ प्रमाणे ४ता ते साधुन 'परो' गृहस्थ श्राय: 'सुप्पेण या' सुपडाथी मय। 'विहुयणेण वा' ५ माथी मगर 'तालिय टेण वा' तर पाना पायी भया 'पत्तेण वा" ५istथी अथवा 'साहाए वो' वृक्षनी शामाथी अथवा 'साहाभंगेण वा' नानी पांमडीथी अथवा 'पिहुणेण वा' पीछाथी मथवा 'पिहुणहत्थेण वा' पीछाना ५पाथी अथवा 'चेलेण वा' परथी मथवा 'चेलकण्णेण वा' पत्रांयरथी अथवा 'हत्थेण वा' पायथी अथवा 'मुहेण वा' भुमयी 'जाव बीइत्ता' यावत् न मा२ ५॥ माहिन यसाची भेटले. ३ ५५न नामी२ ॥२म भशनायितुविध माडा२ त 'आहटु दलएज्जा' सापी माये तो 'तहप्पगारं' मेवी शतना 'असणं वा पाणवा खाइमं वा साइम वा' मशन ચતુર્વિધ આહાર જાત લાવીને આપે તે તેવા પ્રકારના અત્યંત ગરમ અશનાદિ આહારને મુખાદિ દ્વારા અગર પંખા વિગેરે ચલાવીને ઠંડા કરવાથી વાયુકાયિક જીવની હિંસા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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