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________________ आचारांगसूत्रे प्रवेशः प्रतिषिद्धः, सम्प्रति षष्ठोद्देशकेपि प्राण्यान्तरविघ्नबाधा प्रतिषेधार्थमाइ-से भिक्खू वा भिवखुणी वा' स पूर्वोक्तो भिक्षुको वा भिक्षुकी वा-साधुर्वा साध्वी वा, 'गाहावइकुलं' गृहपतिकुलम् 'पिंडयायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया 'जाव पविढे समाणे यावत्-प्रविष्टः सन् 'से जं पुण जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात- अवगच्छेत् 'रसे सिणो बहवेपाणा' रसैषिणः-रसाभि भाषिणः-बहवः प्राणा:-अने के प्राणिनः जीवजन्तवः 'धासेस. णाए' ग्रासेषणया ग्रासार्थम् 'संथडे संनिवइए पेहाए' संस्कृताः-एकत्रिताः एवं संनिपतिताः भवन्ति इति रीत्या संस्तृतान् एकत्रीभूतान् संनिपतितान तान् प्राणिनः प्रेक्ष्य ताँश्च काँश्चित् प्राणिन उदाहरणार्थमाह-'तं जहा-कुक्कुड नाइयं वा' कुक्कुटजातिकम् वा-कुक्कुटजातीयं वा भय से भाव साधु को उन के समक्ष भिक्षा लेने के लिये गृहपति के घर में नहीं जाना चाहिये ऐसा कहा है अब छट्टे उद्देशक मे भी अन्य किसी भी प्राणी के विघ्न बाधाओं का प्रतिषेध करने के लिये कहते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' यह पूर्वोक्त भिक्षु-भाव साधु और भिक्षुकी-भाव साध्वी 'गाहावइकुलं' गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में 'पिंडयायपडियाए जाव' पिण्डपात की प्रतिज्ञा से-भिक्षा. लाभ की आशा से यावत् 'पविढे समाणे' अनुपविष्ट होकर 'से जं पुण जाणेजा' वह साधु या साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रीति जान लेकि 'रसेसिणो वहये पाणा' रसके अभिलाषी बहुत से प्राणी जीव जन्तु 'घासेसणाए संथडे संनिवईए, पेहाए' ग्रास के लिये एकत्रित हो रहे हैं और झुण्ड के झुण्ड, सनिपतित-आये हुए हैं अथवा आ रहे हैं ऐसा देखकर 'तं जहा कुक्कुडजाइयं वा' जैसे-वे जीव जन्तु कुक्कुट जाति-मुर्गा जाति के हैं या 'सूयरजाइयं वा' शुगर जाति के हैं ऐसा देखकर या जानकर एवं 'अग्गपिंडसि वा' संस्तृतान् सनिपतितान प्रेक्ष्य अग्रपिण्ड-बाहर स्थापित-रक्खा हुआ काकबलि रूप अग्रपिण्ड के लिये 'संथडा ભાવ સાધુ કે ભાવ સાવીએ તેમની સાથે ભિક્ષા લેવા માટે ગૃહપતિના ઘરમાં ન જવું તેમ કહેલ છે હવે આ છ ઉદ્દેશામાં પણ અન્ય કોઈ પણ પ્રાણીને વિન કે બાધાઓને નિષેધ કરતાં સૂત્રકાર કથન કરે છે. -से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वरित भाव साधु भने माप साध्वी 'गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए जाब' पतिना घरमा भिक्षामनी ४२छायी यावत् 'पविटेसमाणे' प्रदेश या पछी ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' तमना नामां ने मेवु भावे - 'रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए' २सना अनिवाषी ध। प्राणियो अर्थात् 'तुमे। प्रास भे 40 'संथडे संनिवइए पेहाए' 24॥ भाभा मे४४॥ २६ २७स छ भने टोणाने या गावा छ. 424॥ मावी २॥ छे ते प्रभारी ने 'तं जहा' म 'कुक्कुड जाइयं वा सूयरजाइयं वा' ते तुम ४४ानी andन डाय , सू४२-भुनी तना हाय के प्रमाणे मी तीन तथा 'अगपिंडसि वा वायसा संथडा सणिवइया पेहाए' श्री. ॥॥२॥ सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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