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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ५ सू० ४. पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् पत्रादिकं गृहीखा एकान्तम् अपक्रम्य, एकान्ते अपक्रम्य एकान्तस्थलं गत्वा 'अहे झामर्थडिलंसि वा' अथ दग्धस्थण्डिले वा स्थितः सन् 'जाव अभयरंसि वा तहप्पगारंसि' यावद्अस्थिराशौ वा किट्टराशौ वा तुषराशौ वा शुष्कगोमयराशौ वा अन्यतरस्मिन् वा एकस्मिन् तथाप्रकारे दग्धस्थण्डिलादौ 'पडिले हिय पडिलेहिय' प्रतिलिह्य प्रतिलिह्य पौनः पुन्येन प्रतिलेहनं कृला ‘पमज्जिय पमज्जिय' प्रमृज्य प्रमृज्य पुनः पुनः प्रमार्जनं कृत्वा 'तओ संजयामेव' ततः-तदनन्तरं संयतः एव संयमशीलो भूत्वा स भिक्षुकः 'आमज्जिज्ज वा जाय पयाविज्ज वा' आमृज्यात् वा गात्रस्य आमर्जनं कुर्यात् गात्रं शोधयेदित्यर्थः यावत्-प्रमृज्याद् वा संलिखेद् वा, उद्वलेद् वा उद्वर्तयेद् वा, आतापयेद् वा प्रतापयेद् का, पुनः पुनः प्रता. पनं कुर्याद् ॥ स • ४७ ॥ और 'जाइत्ता' मानकर वह पूर्वोक्त साधु और साध्वी 'से तमाया य' उसशुष्कत. णादि को लेकर एगन्तमवकमिज्जा'एकान्तमे कही पर चला जाय और अपकमित्ता' एकान्त स्थल में जाकर 'अहे झामथंडिलंसि वा जाय' उस के बाद दग्ध स्थण्डिल पर स्थित होकर अस्थि राशि में या किट राशि में या तुष राशि में या शुष्कगोषर के राशि में अथवा 'अनयरंसिवा तहप्पगारंसि' अन्यत्र किसी स्थान में इस तरह के दग्ध स्थण्डिल वगैरह पर बारबार 'पडिलेहिय' प्रतिलेहन करके और चारवार 'पमज्जिय'२ परिमार्जन करके उस के बाद 'तो' प्रतिलेखन और परिमार्जन करने के बाद 'संजयामेव' संयत-संयम शील होकर ही यह भाव साधु और भाच साध्वी, मलमूत्रकर्दमादि से उपलिप्त अपने शरीर का 'आमज्जिज्ज या' आमर्जन एकवार साफ सुथडा करे या 'जाव पयाविज्ज वा' यावत्-परिमार्जन-अच्छी तरह पार बार साफ सुथडा करे एवं संलेखन करे या विलेखन करे या उद्वलन झाडझूड कर साफ करे या उद्घर्तन करे या एकबार आतापन करे या बारबार प्रतापन करे अर्थात् इस तरह यह भाव साधु और भाव साध्वी थोडा साही धूली स मेत स्यमा यस्या. मन शान्तभi run 'अहे ज्झाम थंडिलंसि या' wणेही सूमि ५२ GH. २हीने 2424। 'जाव' न ढसामा मया तुषसुसाना - लामो अथवा सु। छान ढसामा मया 'अन्नयरंसि' मानत 'तहप्पगारंसि' तथा 4t२१ स्थानमा पराम२ 'पडिलेहिय पडिलेहिय' प्रतिमन ४शन मन पराम२ ‘पमज्जिय पमज्जिय' परिभान रीने 'तओ' ते पछी 'सजयामेय' सयमा २४२ मे सा५३ सावी भणभूत्र ४१ विगैरेथी ॥२७॥ये शरीरनु 'आमज्जिज्ज वा जाय पयाविज्ज वा' આમર્જન અર્થાત્ એકવાર સાફસુફ કરે અને યાવત્ પરિમાર્જના સારી રીતે બરાબર સાફ સુફ કરે. તથા સંલેખન કરે અથવા વિલેખન કરે અથવા ઉદ્વલન અર્થાત ખંખેરીને સાફ કરવું અથવા ઉદ્દવર્તન કરવું અથવા એકવાર આતાપન કરવું કે વારંવાર પ્રતાપન કરવું અર્થાત્ આ રીતે એ ભાવ સાધુ અને ભાષા સાથ્વી શેલડી ધુળવાળું ઘાસ યા પાના श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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