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________________ १२० आचारांगसूत्रे 'सइपरक्कमे' सति प्रक्रमे - अन्यस्मिन् गमनमार्गे विद्यमाने सति प्रक्रम्यते अनेनेति प्रक्रमोमार्ग इत्युच्यते, तथासति 'संजयामेव परक्कमिज्जा' संपत एवं संयमशील एव भिक्षुकः पराक्रमेत गच्छेत् अन्यमार्ग संभवे तेनैव मार्गेण भिक्षार्थं गच्छेत्, 'णो उज्जुयं गच्छिज्जा' नो ऋजुना सरलेन अल्पकालगम्येन वप्रादिमार्गेण गच्छेत् तत्र कारणमाह 'केवलिबूया - आयाण मेयं' केवली केवलज्ञानी वीतरागः प्रभुभगवान् महावीरो ब्रूयात्-त्रवीति उपदिशतीत्यर्थः, किमुपदिशतीत्याह - आदानमेतत्-आदीयते अनेनेति आदानम् कर्मबन्धनम् कर्मागमनवर्त्म एतद् वप्रादिमध्येन भिक्षार्थ गमनमित्यर्थः तथागमने सति संयमात्मविराधना स्यादितिभावः तामेव संयमात्मविराधनामग्रे अभिधास्यति ॥ ०४६ ॥ मूलम् - से तत्थ परक्कममाणे पयलिज्ज वा, पक्खलेज्ज वा, पवडिज वा, से तत्थ पयलेमाणे वा, पक्खलेज्जमाणे पत्रडमाणे वा, तत्थ से काये उच्चारेण वा पासवणेण वा, खेलेण वा सिंधाणेण वा, वंतेन वा पित्तेन वा, पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा, उवलित्ते सिया, तहप्पगारं कार्यं णो अनंतरहियाए पुढवीए णो सिसिणिद्धार पुढवीए णो ससरकखाए पुढवीए, णो चित्तमंताए सिलाए, जो चित्तमंताए लेलूए, मध्य में देखकर या जानकर 'सह परक्कमे संजयामेव परकमिज्जा' भिक्षार्थ जाने के लिये दूसरा मार्ग रहने पर संगत-संयम शील साधु को उसी दूसरे मार्ग से जाना चाहिये अर्थात् संयत साधु अन्य रास्ता के होने पर उसी रास्ता से भिक्षा के लिगे जाय किन्तु 'नो उज्जुयं गच्छिज्जा' ऋजु -सरल थोडे ही काल में जाने वाले वप्रादि मार्ग से नहीं जाय क्योंकि 'केवली बूया आयाणमेयं' केवल ज्ञानी भगवान् कहते हैं कि भिक्षा के लिये वप्रादिमार्ग से जाना साधु के लिये कर्मबन्धनरूप आदान है इसलिये ऐसे वप्रादि मार्ग द्वारा जाने से साधु और साध्वी को संयम आत्म विराधना होगी अतः भिक्षा के लिये वप्रादि मार्ग से साधु साध्वी नहीं जाय || सू० ४६ || परिकमिज्जा' लिक्षा भाटे या भाटे मीले भार्ग होय तो संयमशील साधुओ मे मील भागे थी वु लेहा परंतु 'णो उज्जुय' गच्छिजां' सरस सेवा उपस्तिपत्राहि दोषोपाजा नहि ययाय सेवा भागे थी वु नहीं है - ' केवली वूया आयाणमेय" पण ज्ञानी ભગવાન્ મહાવીર સ્વામી કહે છે કે ભિક્ષાને માટે વપ્રાદિ માગેથી જવું સાધુને કર્માંના અધ રૂપ આદાન છે તેથી એવા વપ્રાદિ વાળા માર્ગે જવાથી સાધુ સાધ્વીને સંયમ આત્માવિરાધના થાય છે તેથી ભિક્ષા ગ્રહણ માટે તેવા પ્રકારના માળેથી સાધુ કે સાધ્વી એ જવું ન જોઇએ ! સૂ૦ ૪૬ ॥ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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