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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ५ सू० ४५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् ११७ अग्रपिण्डमित्युच्यते तम् अग्रपिण्डम् उत्क्षिप्यमाणम् किश्चित् किश्चिद् निस्सार्यमाणं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा एवम् 'अग्गपिडं निविखप्पमाणं पेहाए' अग्रपिण्डं निक्षिप्यमाणम् स्थानान्तरे स्थाप्यमानं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा, तथा 'अग्गपिंण्डं हीरमाणं पेहाए' अग्रपिण्ड हियमाणम् अन्यत्रदेवायतनादौ नीयमानं प्रेक्ष्य अवलोक्य एवम् 'अग्गपिंडं परिभाईज्जमाण पेहाए' अग्रपिण्डं परिभज्यमानम् विभज्यमानम् किश्चित् किश्चिद् विभज्यदीयमानं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा 'अग्गपिण्डं परिभुजमाणं पेहाए' अग्रपिण्डं परिभुज्यमानम् प्रेक्ष्य, एवम् 'अग्गपिडं परिठविज्जमाणे' अग्रपिण्ड परित्यज्यमानम् देवतायतनचतुर्दिक्षु विकीर्यमाणं तथा 'पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा पूर्वम् अशितवन्तो वा चरकशाक्यादिश्रमणाः भुक्तवन्तो वा, अपहतयन्तो वा येन केनापिरूपेण नीतयन्तो चा सन्ति, एवं 'पुरा जत्यऽण्णे समणमाहणअतिहिकिवणवणीवगा' पुरा पूर्व यत्र अन्ये श्रमणब्राह्मणपतिथिकृपणवनीपका:-यस्मिन् स्थाने अन्ये अपरे श्रमणाः चारकशाक्यादयः, भोजन से निकालकर प्राणीमात्र के लिये रक्खा हुआ गोग्रासादि को थोडा थोडा निकाला जा रहा है ऐसा देखकर एवं 'अग्गपिडं णिक्खिप्पमाणं पेहाए' अग्रपिण्ड दूसरे स्थान में रक्खाजा रहा है ऐसा देखकर तथा 'अग्गपिण्डं हीरमाणं पेहाए' अग्रपिण्ड देवायतन वगैरह स्थान में लेजाया जा रहा है ऐसा देखकर एवं 'अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए' अग्रपण्डि थोडा विभाग कर दिया जा रहा है ऐसा देखकर तथा 'अग्गपिंडं परिभुंजमाणं पेहाए' अग्रपिण्ड खाया जा रहा है ऐसा देखकर और 'अग्गपिंडं परिदृविज्जमाणं पेहाए' अग्रपिण्ड देवायतनके चारों तरफ विखेरा जा रहा है ऐसा देखकर और 'पुरा असिणाइ याअवहाराइ चा' पहले ही चरक शाक्यादि श्रमण खाचुके हैं और जिस किसी. भी रूप में ले गये हैं एवं इसी प्रकार में 'पुरा जत्थन्ने समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा' पहले जहां जिस स्थान में दूसरे भी श्रमण-चरक शाक्य वगैरह पछी ‘से जं पुण जाणेज्जा' ते साधु साध्य नीय ४पामा मापना शत मे agla , 'अग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पहाए' मअपि-मर्थात् मनासी रसाभाथी परसi કાઢીને અન્ય પ્રાણિ માટે રાખેલ ગ્રાસાદિને થોડું થોડું કાઢવામાં આવે છે એજ પ્રમાણે 'अग्गपिंडं णिक्खिप्पमाणं पेहाए' सपिने अन्य स्थानमा रामपामा मापी २७ . मेन तथा 'अगपिंड हीरमाणं पेहाए' श्रपिउने पासय विगेरे स्थानमा rail नये तथा 'अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए' समिाथी था। था। लास पाडान भाषामा मातi Rधन तथा 'अग्गपिंड भुंजमाणं पेहाए' मअपिउने पापामा माता नधन त 'अग्गपिंडं परिदृविज्जमाणं पेहाए' अपि पायतननी थारेमा तु 'पुरा असिणाइ वा अपहाराइ वा' ५९i २२४ या श्रमाये माली डाय भने ७५५ ३ १ गवायेस डाय तथा 'पुरा जत्थपणे समणमाहण' पडेल यां-२ स्थानमा मीn aiealis श्रमायु ३२३२॥३५ विगेरे भने प्रहा। तया 'अतिहि कियण वणीमगा' श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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