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________________ आचारांगो % ES अथ-चतुर्थ भावनाप्ररूपणानन्तरम् पञ्चमी भावना वक्ष्यमाणरूपा प्ररूप्यते-'फासी जीवो मणुनामणुनाई फासाई पडिसेवे एइ' स्पर्शतः- त्वगिन्द्रियतः जीवः मनोज्ञामनोज्ञान-प्रियाप्रियान स्पर्शान्-मृदुकठिनस्पर्शादीन् प्रतिसेवते, तस्मात् 'मणुनामणुन्नेहिं फासेहि नो सज्जि जा' मनोज्ञामनोज्ञैः प्रिया प्रियैः स्पशैः मृदुकठिनादि स्पर्शेषु नो सज्जेत-नासक्तो भवेत् 'जाब नो विणिघायमावजिजा' यावद-नो रज्येत्-नानुरक्तो भवेत्, नो गृध्येत्-न गर्धाम् आप्नुयात्' तत्र हेतुमाह- केवलीबूया-आयाणमेय' केवली-केवलज्ञानी भगवान जिनेन्द्र याद्-आह, उक्तवानित्यर्थः, आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत्-मृदुस्पर्शादिस्पर्शनं कर्मबन्धरूप पञ्चम महाबन की चतुर्थी भावना के निरूपण करने के बाद अब अपरा अन्या पंचमी भावना का निरूपण करते हैं-'फासओ जीवा मण्णाणुण्णाई' स्पर्शे न्द्रिय अर्थात् स्वगिन्द्रिय से जीव सभी प्राणी मनोज्ञामनोज्ञ अर्थात् 'मणुण्णा मणुण्णेहि फासेहि' प्रिय अप्रिय सभी मृदु कठिन कोमलादि ‘फासाई पडिसे विए' स्पर्शों का प्रतिसेवन करता है इसलिये 'नो सज्जिज्जा' निग्रन्थ जैन साध को मनोज्ञामनोज्ञ प्रिय अप्रिय सभी मृदु (कोमल) कठिन कोमलादि स्पर्शी में आसक्त नहीं होना चाहिये एवं 'जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा' यावत् प्रिय अप्रिय मृदु कठिनादि साशों में अनुरक्त भी नहीं होना चाहिये एवं प्रिय अप्रिय मृद कठिनादि स्पशों के लिये जैन साधु को गर्धा अर्थात लोभ भी नहीं करना चाहिये, एवं प्रिय अप्रिय मृदु कोमल कठिनादि स्पशों के लिये मोह भी नहीं करना चाहिये, तथा मनोज्ञामनोज्ञ मृदु कठिनादि स्पों के लिये विनिर्घात को भी नहीं पास करना चाहिये क्योंकि केवलीव्या' केवलज्ञानी भगवान श्री महावीर स्वामी प्रहले हैं कि 'आयाणमेयं' यह अर्थात् मृद कठिनादि स्पर्श करना आदान याने कर्मबन्ध का कारण माना जाता है મહાવતની રે થી ભાવાનાનું નિરૂપણ કરીને હવે પાંચમાં ભાવનાનું નિરૂપણ કરવામાં आवे छे.-'फासओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसेवेइ' २५शेन्द्रिय अर्थात् (१२५ ઈન્દ્રિયથી જીવ બધા પ્રાણિયો મનેણામને જ્ઞ અર્થાત્ પ્રિય અપ્રિય બધા મૃદુ કઠણ કામमा पनि प्रतिसेवन ४२ हे. तेथी 'मणुन्नामणुन्नेहिं फासेहिं नो सज्जिज्जा' नि- मुनि प्रियमप्रिय साथ भृ? ४४६५ मा २५ मा मास ४1 नही "जाव नो विनिघा यमावन्जिज्जा' तथा यावत् प्रिय प्रिय मृद ना २५भिां मनु२४१ ५६ थ नही તથા પ્રિયઅપ્રિય મદુ કઠણ વિગેરે સ્પર્શી માટે નિર્ચથ મુનિએ ગર્ધા અત લે પણ કરવો નહીં. તથા પ્રિય અપ્રિય મદુ કમળ કઠણ વિગેરે સ્પર્શી માટે મેહ પણ કરે નહી તથા મને જ્ઞામને મૃદુ કઠિનાદિ સ્પર્શી માટે વિનિર્ધાત પણ પ્રાપ્ત કરે નહીં. भ-'केवलीबूया आयाणमेथे' वणशानी वीतरामा श्रीमा२ २वामी हे छ । આ અર્થાત્ મૃદુ કઠણ વિગેરે સ્પર્શ કરવા આદાન અર્થાત્ કર્મબંધનું કારણ માનવામાં श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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