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________________ आवारांगसूत्रे सनानि सेविता-सेवकः स्यादिति पंचमीभावणा' पञ्चमी भावना अवगन्तव्या, सम्प्रति चतुर्थमहाव्रतस्य सर्वविधमैथुनविरमणरूपस्य वक्तव्यतामुपसंहन्नाह-'एतावया चउत्थे महव्वए' एतावता-उक्तप्रकारेण चतुर्थ मह व्रतं सर्वप्रकारकमैथुनविरमणरूपं 'सम्मं कारण फासेइ जाव आराहिए यावि भवई' सम्यकू-सम्यक्त या कायेन स्पर्शितं यावत्-पालितम् तीर्ण कीर्तितम् आज्ञया तीर्थकृदादेशेन आराधितश्चापि भवति इति 'वउत्थं भंते ! महव्वयं' हे भदन्त ! चतुर्थ महाव्रतं सर्वप्रकारकमैथुनविरमणरूपम् अवगन्तव्यम्, णासणाई सेवित्तए सियत्ति' शयनासनों का सेवन नहीं करना चाहिये एतावता जिस पर्यादि शपनीय स्थान पर युवती स्त्री वगैरह बैठी हुई हो और जिन आसनों पर भी युवती स्त्री वगैरह उपविष्ट हो उस पर्यङ्कादि शयनासनों पर निर्ग्रन्थ जैन साधु को नहीं बैठना चाहिये इस प्रकार सर्वविध मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत को 'पंचमी भावणा' यह पांचवीं भावना समझनी चाहिये। ___ अब उसी सर्वविध मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत की उपयुक्त वक्तव्यता का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि-'एतावया च उत्थे महव्वए' एतावता उक्त रीति से सर्व प्रकारक मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत 'सम्मकाएण फासेई' उपर्युक्त पंच भावनाओं के साथ सम्यक् रूप से अत्यन्त समीचीन रूप से काय अर्थात् शरीर द्वारा स्पर्शित होकर याने सेवित होकर तथा 'जाव आराहिए यावि भवई' यावन् पालित होकर एवं तीर्ण अर्थात् पारित होकर तथा कीर्तित होकर भगवान् श्री महावीर की आज्ञा से याने आदेश से आराधित भी होता है 'चउत्थं भंते ! महत्वयं' इस प्रकार हे भदन्त ! श्री महावीर स्वामिन् सभी प्रकार के भैथुन से विरमण रूप चतुर्थ महावंत समझना चाहिये इस प्रकार चतुर्थ महाव्रत का निरूपण समाप्त हो गया। વિગેરેના સંસર્ગવાળા શયનાસનેનું સેવન કરવું નહીં. એટલે કે જે પર્યક વિગેરે શયનીય સ્થાન પર યુવસ્ત્ર વિગેરે બેઠેલ હોય અને જે આસન પર પણ યુવતી સ્ત્રી બેઠેલ હોય તેવા પર્યક વિગેરે શયનાસનો પર નિર્ચસ્થ મુનિએ બેસવું નહીં. આ પ્રમાણે સર્વ વિધ મૈથુન વિરમણ રૂ૫ ચોથા મહાવ્રતની આ પંચમ ભાવના સમજવી. હવે એજ સર્વવિધ મૈથુન વિરમણ રૂપ ચોથા મહાવ્રતના ઉપરત કથનને ઉપसहा२ ४२तां सूत्रा२४ -एतावया चउत्थे महव्यए सम्म काएण फासेइ' त थी સર્વવિધ મૈથુન વિરમણ રૂપ ચોથા મહાવ્રતની ઉપરોક પાંચ ભાવનાઓ સાથે સમ્યફ પ્રકા२थी ४५ अर्थात् शीरथी २५शत धन से सेपित ४२ 'जाव आराहिए यावि भवइ' तथा यावत् पालित छन भने ती अर्थात पा२ ४शन तथा प्रतित ईन ભગવાન્ વીતરાગ તીર્થંકરની આજ્ઞાથી અર્થાત્ આદેશથી આરાધિત પણ થાય છે આ प्रभारी ‘च उत्थं भंते महव्वयं ७ मावान् धा प्रा२ना भथुनथा विभय ३५ या મહાવ્રત સમ જવું. આ પ્રમાણે ચેથા મહાતનું કથન પૂર્ણ થયું. श्री. आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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