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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् संसर्गयुक्तानि शयनासनानि न सेवेतेत्यर्थः तत्र हेतुमाह-'केवलीवूया-आयाणमेयं केवलीकेवलज्ञानी भगवान् श्रीमहावीरः ब्रूयात्-आह, आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत् स्त्रीपशु नपुंसकसंसक्तशयनासनसेवनम् वर्मबन्धकारणं भवतीत्यर्थः तथाहि 'निग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सयणासणाई सेवेमाणे' निग्रन्थः साधु: खलु पशुपण्ड कसंसक्तानिमहिला युवति खोपशुनपुंसकयुक्तानि शयनासनानि सेवामानः 'संतिभेया जाव भंसिज्जा' शान्ति भेदकः चारित्रसमाधिभेदको भवति एवं यावत्-शान्तिविभञ्जक:-ब्रह्मवर्यरूपशान्तिभंगकर्ता चापि भवति तथा शान्तितः केवलज्ञानि तीर्थकृत प्रतिपादिताद धर्माद भ्रश्येत्-भ्रष्टो भवेत् तस्मात् 'नो निग्गथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सपणासणाई सेवित्तए सियत्ति' नो निर्ग्रन्थः साधुः स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि-स्त्रीपशुनपुंसकसंसर्गयुक्तानि शयनास्त्री पशु नपुंसकों के संसर्ग से युक्त शयन आसनों का सेवन नहीं करें क्योंकि 'केवलीव्या केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामीने कहा है कि यह अर्थात् 'आयाणमेयं युवती स्त्री नपुंसकों से संसक्त शयनासनों का सेवन करना आदान याने कर्मवन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि निग्गंथे इत्थी पसु. पंडगसंसत्ताणि' युवती स्त्री पशुनपुंसकों से सम्बद्ध 'सयणासयाई सेवेमाणे शयनासनों का सेवन करनेवाला निग्रंथ जैन साधु 'संतिभेया जाव भंसिज्जा' शान्ति का भेदक याने चारित्र समाधि का भंग करनेवाला होता है और यावतू शान्ति विभंजक भी होता है याने युवती स्त्री पशुनपुंसकों से संसक्त शयनासनों का सेवन करने से जैन साधु का ब्रह्मचर्य का नाश भी हो सकता है एवं शान्ति से केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है 'तम्हा नो निग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि' इसलिये निर्ग्रन्थ जैन साधु को युवती स्त्री पशुनपुंसक (हीजडा) वगैरह से संसक्त 'सय मासनानु सेवन ४२७ नही है-'केवलीबूया आयाणमेय' ज्ञनी वात। ती ४२ ભગવાને કહ્યું છે આ એટલે કે-યુવતી સ્ત્રી પશુ અને નપુંસકેના સંસર્ગ વાળા શયનાसानु सेवन ४२ मे माहान अर्थात धनु ४२५ भनाय छ, भ-निग्गंधे इत्थी पसुपंडगसंसत्ताणि सयणासणाई सेवेमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा' युक्तीखी પશુ નપુંસકેના સંબંધવાળા શયનાસોનું સેવન કરવાવાળા નિર્ચન્થ જૈન મુનિ શાંતિના ભેદક એટલે કે ચારિત્ર સમાધિને ભંગ કરનાર કહેવાય છે અને યાવત્ શાંતિ વિભંજક પણ થાય છે. અર્થાત બ્રહ્મચર્યરૂપ શાંતિનો ભંગ કરવા વાળા પણ હોય છે, અર્થાત્ યુવતી સ્ત્રી પશુ નપુંસકના સંસર્ગવાળા શયનાસનું સેવન કરવાથી સાધુના બ્રહ્મચર્યને નાશ થાય છે તથા કેવળજ્ઞાની ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ પ્રતિપાદન કરેલ જૈનધર્મથી प अष्ट Mय . 'तम्हा नो निग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सयणासणाई सेवित्तए सिथति पंचमी भावण' तथा नि" - साधुये युवतीत्री पशु न४ (878) आ० १४४ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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