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________________ ११०६ आचारांगसूत्रे शेषः, तत्र हेतुमाह- 'अण इरियासमिए से निग्गंथे' अनीर्यासमितः-ईयासमितिरहितः स निर्ग्रन्थः साधुः 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई' प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वानि 'अभिहणिज्ज वा ' अभिहन्याद् वा हननं करोति, 'वत्तिज्ज वा' वर्तयेद् वा एकत्रितं वा जीवं करोति 'परिया'विज्ज वा' परितापयेद् वा परितापनां करोति 'लेसिज्ज वा' श्लेषयेद् वा भूमौ संश्लिष्टं जीवं करोति, ' उद्दविज्न वा' अपद्रावयेद् वा जीवनरहितं जीवं करोति तस्मात् स नो निर्ग्रन्थः अपि तु 'इरियासमिए से निग्गंथे' ईर्यासमितः - ईर्यासमितियुक्तः स निर्ग्रन्थः वास्तविकः साधुः 'नो इरियाsसमिति' समितः - ईर्यासमिति रहितः साधुः न संभवतीति 'पदमा भावणा ॥ १ ॥ प्रथमा भावना - प्रथममहाव्रतस्य प्रथमा भावना अवगन्तव्या । सम्प्रति प्रथम महाव्रतस्य सर्वप्राणातिपातविरमणरूपस्य द्वितीयां भावनां प्ररूपयितुमाहहोना आदान अर्थात् कर्मबंधन का कारण माना जाना है क्यो कि 'अणईरिया समिए से निथे' - अनीर्यासमिति युक्त याने इयसमिति रहित वह निर्ग्रन्थ जैन साधु 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई' प्राणी का भूतों का जीवों का और सत्वों का 'अभिहणिज्ज वा' अभिहनन करेगा घाने अभिघात करेगा अथवा - "वत्ति ज्ज वा' जीवों को एकत्रित करेगा या जीवों को 'परियाविज वा' परितापना करेगा अथवा जीवों को 'लेसिज्ज वश' भूमि में संश्लिष्ट करेगा अर्थात् भूमि से संबद्ध करेगा अथवा जीवों को 'उदविज वा' अपद्रवित करेगा याने जीवन रहित कर डालेगा इसलिये 'इरिया समिए से निग्गंथे' इय समिति से युक्त ही साघु निर्ग्रन्य हो सकता है - 'नो इरिया समइत्ति' इर्या समिति से रहित साधु- वास्तविक निर्ग्रन्थ साधु नहीं हो सकता है इस प्रकार - 'पढमा भावणा' प्रथम महावत की यह पहली भावना समझनी चाहिये अब प्रथम महाव्रत की दूसरी भावना का निरूपण करने के लिये कहते हैंકે—આ અનિયર્યસમિતિ અર્થાત્ ઈર્માંસમિતિ રહિત થવું એ આદાન અર્થાત્ ક ખ ધનુ अर] भानवामां आवे छे. आर १ 'अणईरियासमिर से निगांथे' अनीर्यासभितिथी युक्त भेटले } धैर्यासमिति दिनाना से निर्भय साधु 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई' प्रशोनु, भूतनुं वनुं ने सत्वानु' 'अभिहणिज्ज वा' अलिहुनत अरशे भेटते हैं अभिघात ४२शे. अथवा 'वत्तिज्जवा' वा ४२शे अथवा 'परियावणिज्जवा' वेनी परितायना १२शे. अथवा 'लेसिज्ज वा' संश्लिष्ट ४२शे. अर्थात् भीनमां संबंध १२शे अथवा 'उद्दविज्जया' वने यद्रावित कुशे अर्थात् भारी नामशे तेथी 'ईरिया समिए से निथे' तेथी र्या समितिथी युक्त होय ते वास्तवि४ साधु छे. 'णो इरिया समपत्ति पढमा भावणा' र्या समिति विताना निर्थन्थ वाता नथी. परंतु धरिया समितित्राणा સાધુ નિશ્ચેન્થ કહેવાય છે. અર્થાત્ ઇર્ષ્યાસમિતિ વિનાના સાધુ વાસ્તવિક નિન્થ જૈન સાધુ થઈ શકતા નથી, રીતે પહેલા મહાવ્રતની આ પહેલી ભાવના સમજવી નઇએ, આ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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