SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् ११०५ कायिकवाचिकमानसिकप्राणातिपातरूप-जीववधात् प्रतिक्रमामि-निवृत्तो भवामि 'निंदामिगरिहामि' निन्दामि आत्मसाक्षितया तस्य प्राणातिपातस्य निन्दा करोमि, गहें-गुरुजनसाक्षितया तस्य जीवमात्रवधस्य गर्हणां करोमि 'अप्पाणं वो सिरामि' आत्मानम्-व्युत्सृजामिस्वामानं तथाविधवधरूपपापात् पृथककरोमीति भावः तत्सिमाओ पंचभावणा भो भवंति' तस्य-प्रथममहाव्रतस्य प्राणातिपातविरमणरूपस्य इमा:-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पश्चमावना भवन्ति 'तस्थिमा पढमाभावणा' तत्र-तासु पञ्चभावनासु इयम्-प्रतिपाद्यमाना प्रथमा भावना बोध्या, तथ हि 'इरियासमिए से निग्गंथे' ईर्याप्तमित: इर्यासमित्यायुक स निग्रन्थः वास्तविक साधुः 'नो अणइरियासमिएत्ति' नो अनीर्यासमितः-ईसिमिति रहितः साधु परिगण्यते, तत्र भगवद्वाक्यं प्रमाणमाह- केवलीबूया-आयाण मेयं केवली-केवलज्ञानी भगवान अयातआह आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत्-अनीर्यासमितिख्यम् ईर्यासमिति राहित्यं वर्तते इति वचन एवं शरीर से 'तस्स भंते ! पडिकमामि' हे भगवन् ! कायिक वाचिक एवं मानसिक प्राणातिपात रूप जीवहिंसा से निवृत्त होता हूँ 'निंदामि गरिहामि' आत्म साक्षिता में उस प्राणातिपात की निंदा करता हूं, गुरुजन की सक्षितामे जीवमात्र के वध की गर्हणा करता हूँ 'अप्पाणं वोसिरामि' उस प्रकार के प्राणातिपात से मेरे आत्मा को पृथक करता हूँ। 'तरिसमाओ पंच मावणाओ भवंति' उस सर्वप्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महावत की वक्ष्यमाणरूप से पांच भावनाएं होती हैं 'तथिमा पढमा भावणा' उन में पहली भावना बतलायी जाती है कि 'इरियासमिए' इयाँ समिति से युक्त हो वह 'निग्गये' वास्तविक निर्ग्रन्थ जैन साधु माना जाता है किंतु- णो अणइरिया समिए' अनईसिमिति युक्त याने इर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ अर्थात् साघु नहीं माना जासकता है क्योंकि केवलीया' केवलज्ञानी वीतराग भगवान् श्रीमहावीर स्वामीने कहा है कि-'आयाणमेयं' यह अनिर्यासमिति याने इर्यासमिति रहित वयसा कायसा' भन क्यन मने यथी 'तस भंते ! पडिक्कमामि' इ मन् ! यि पाय भने भानसि प्रातिपात ३५ असायी निवृत्त था छु.. 'निंदामि गरि મિ' આત્મ સાક્ષિપણાથી એ પ્રાણાતિપાતની નિંદા કરું છું ગુરૂજનની સાક્ષિપણામાં प्राय भात्रना पचनी । ४३ छु. 'अप्पाणं पोसिरामि' से ५४२ना प्रतिपातथी भा२॥ आत्मान 40 ४३ . 'तस्तिमाओ पंच भावणामो भवंति' से स प्रापिyात. (१२म३५ ५७॥ महाबतनी पक्ष्यभारीते पांय सापना। डाय छे. 'तथिमा पढमाभावणा' तेभा पक्षी भावन माम मा छ -'इरियासमिए' या समितिथी युत १ वास्तवि: ‘से निग्गंथे' न साधु मनाय छे. ५२तु णो अणइरिया समिएत्ति' मनीयाँ સમિતિથી યુક્ત અર્થાત ઈ સમિતિ વિનાના નિગ્રંથ અર્થાત્ સાધુ કહેવાતા નથી. કેમ , 'केवली बूया आयाणमेय' सज्ञानी वीतराम भगवान् श्री महावी२ २१ामा झुछ आ० १३९ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy