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विषय
४६ यह मुनि ऐहिक कामभोगोंका अनुरागी न बने,
और मोक्षके स्वरूपका पर्यालोचन कर इन्द्रादि देवपदोंकी
भी अभिलाषा न करे। ४७ चौवीसवीं गाथाका अवतरण; गाथा और छाया । ४८ यदि राजा जीवनपर्यन्त निर्वाहके लिये धनादिक प्रदान
करे, और कोई देव दिव्य ऋदि देनेके लिये प्रगट होवे तो भी मुनि अपने तपको खण्डित नहीं करे। वह मुनि राजप्रदत्त ऐश्वर्यको और देवप्रदत्त दिव्य ऋद्धिको आत्मकल्याण के प्रतिकूल जान कर ज्ञानावरणीयादि सभी कर्मीको विनष्ट करे।
५२९-५३० ४९ पच्चीसवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया। ५३०-५३१ ५० पांचों प्रकारके शब्दादिकोंमें अथवा उनके साधक धनोंमें
गृद्धि छोड कर मुनि पादपोपगमन मरणसे आयुकालका पारगामी होवे । मुनि तितिक्षाको उत्कृष्ट समझ कर भक्तपरिज्ञा, इङ्गितमरण और पादपोपगमन, इन तीनोंमें से किसी एकको अपनी शक्तिके अनुसार स्वीकार करे; क्यों कि ये तीनों
ही कर्मनिर्जराकारक हैं । अष्टम उद्देशकी समाप्ति । ५३१-५३२ ५१ अध्ययनस्थ विषयोंका उपसंहार ।
५३२-५३५ ॥ इति अष्टम अध्ययन ॥
॥अथ नवम अध्ययन॥
(प्रथम उद्देश) १ नवम अध्ययनका पूर्वोक्त अध्ययनोंके साथ सम्बन्धप्रतिपा
दन, 'उपधानश्रुत' शब्दकी व्याख्या, अध्ययनके चारों उद्देशोंमें आये हुए विषयोंका दिग्दर्शन ।
५३६-५३८
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩