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विषय
नहीं है, अपि तु वह पण्डित मरण ही है । वह मुनि वस्तुतः संसारान्तकारी ही होता है । इस प्रकार वह विमोहका आयतनस्वरूप वैहायस मृत्यु ही उस साधुके हित आदिकी करनेवाली होती है।
४४९-४५६ ॥ इति चतुर्थ उद्देश सम्पूर्ण ॥
॥ अथ पञ्चम उद्देश॥ १ पश्चम उद्देशका चतुर्थ उद्देशके साथ संबन्धपतिपादन,
प्रथम सूत्रका अवतरण, प्रथम सूत्र और छाया । ४५७-४५८ जो भिक्षु, दो वस्त्र और एक पात्र धारण करनेके लिये अभिग्रहसे युक्त है उसे यह भावना नहीं होती कि तीसरे वस्त्रकी याचना करूँगा। वह यथाक्रम एषणीय वस्त्रोंकी याचना करता है, उसकी इतनी ही सामग्री होती है । जब हेमन्त ऋतु बीत जाती है और ग्रीष्म ऋतु आने लगती है तब वे परिजीर्ण वस्त्रोंको छोड देवें । अथवा शीत समय बीतने पर भी क्षेत्र, काल और पुरुषस्वभावके कारण यदि शीतबाधा हो तो दोनों वस्त्रोंको धारण करें। शीतकी आशङ्का हो तो अपने पास रखें, त्यागे नहीं । अथवा अवमचेल हो, अथवा एकशाटकधारी होवें, अथवा अचेल हो जावें । इस प्रकारसे मुनिकी आत्मा लाघव गुणसे युक्त हो जाती है । भगवान्ने जो कहा है वह सर्वथा समुचित है, इस प्रकार मुनि सर्वदा भावना करें। यदि मुनिको ऐसा लगे कि रोगादिकोंसे स्पृष्ट हो गया हूं, निर्बल हूं, मैं भिक्षाचर्या के लिये गृहस्थके घर जानेमें असमर्थ हूं, उस समय यदि कोई गृहस्थ मुनिके लिये अशनादिक सामग्रीकी योजना करे तो मुनि उसे अकल्पनीय समझकर कभी भी नहीं स्वीकारें।
४५८-४६१
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩