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[४२] विषय
पृष्ठाङ्क तत्वोंको सम्यक मानता है और जिनोक्त तत्त्वोंको असम्यक मानता है । सन्देहरहित संयमियोंको चाहिये कि वह सन्देहशोल लोगोंको संयममें उद्योगशील होनेकी प्रेरणा करें। इस प्रेरणासे संयमके विरोधी ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की परम्परा नष्ट हो जाती है। संयमाराधनमें सतत जागरूक मुनियों के आचरणका अनुकरण करो। बालभावमें कभी भी मत पडो।
१७०-१८२ १० पञ्चम सूत्रका अवतरण, पश्चम सूत्र और छाया । १८२-१८३ ११ तुम जिसे हन्तव्य मानते हो, वह कोई दूसरा नहीं है; अपि
तु वह, तुम स्वयं ही हो । इसी प्रकार तुम जिसको आज्ञापयितव्य मानते हो, जिसे परितापयितव्य मानते हो, जिसे परिग्रहीतव्य मानते हो और जिसे अपद्रावयितव्य मानते हो, वह कोई दूसरा नहीं; अपितु तुम्ही हो। इस प्रकारके परिज्ञानवाला ऋजु-सरल होता है । इसलिये किसी भी जीवका घात न करो और न करवाओ। जो घातक होता है उसे भी उसी प्रकार घातका अनुभव करना पडता है।
इसी लिये किसी को भी हन्तव्य नहीं समझे। १८३-१८८ १२ छठा सूत्रका अवतरण, छठा मूत्र और छाया। १८९-१९०
जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। जिससे जाना जाता है वह आत्मा है । वह ज्ञानस्वरूप आत्मा भी उस आत्मशब्दसे ही कहा जता है, अर्थात् ज्ञान भी 'आत्म' शब्दसे व्यवहृत होता है। यह आत्मवादी सम्यक्पर्याय कहा जाता है। १९०-१९९
॥ इति पञ्चम उद्देश ॥
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩