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[३६] विषय
कहे जाते हैं हो जाते हैं तो वह उनकी वेदनाको शान्तिपूर्वक सहता है, औरवह इस प्रकार विचारता है-यह स्वकर्मजनित वेदना पहेले या पीछे मुझे हो सहनी होगी। यह शरीर विनाशशील है, विध्वंसनशील है, अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, चयापचयिक है, परिणमनशील है । अतः ऐसे शरीरको और सुकुलजन्म और बोधिलाभ आदिके अवसरको पा कर तप
संयम आदि द्वारा अपने जीवनको सफल बनाना चाहिये। ६ तृतीय मूत्र का अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया। ७ शरीर की विनाशशीलता आदि देखनेवाला मुनि नरकादि
गति के भागी नहीं होता है। ८ चतुर्थसूत्रका अवतरण, चतुर्थ सूत्र और छाया।
इस लोकमें कितनेक मनुष्य परिग्रही होते हैं । थोडा या बहुत, अणु या स्थूल, सचित्त या अचित्त जो भी परिग्रह इनके पास होते हैं उन्हीं परिग्रहों में ये मग्न रहते हैं । यह शरीर ही किसी२ को महाभयदायक होता है। मुनि, असंयमी लोगों के धन को या व्यवहार को महाभय का कारण जानकर उससे दूर रहता है । द्रव्यपरिग्रह के संबन्धके त्यागी परिग्रहजनित
भय नहीं होता है। १० पश्चम मूत्र और छाया
निष्परिग्रह मुनि अपने कर्तव्य मार्ग में जागरूक होता है, प्रत्यक्षज्ञानियोंने ऐसे शिष्यों के लिये ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उपदेश किया है। इसलिये हे भव्य ! मोक्ष की
ओर लक्ष्य रखकर संयममें विशेषतः पराक्रमशाली बनो। ऐसे संयमी ही ब्रह्मचारी होते हैं। यह सब मैंने तीर्थङ्कर भगवान् के मुख से सुना है, इसलिये यह सब मेरे हृदयमें स्थित है। ब्रह्मचर्यमें स्थित मनुष्य का हो बन्ध से प्रमोक्ष (छुटकारा) होता है । अथवा-ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों का सम्बन्ध
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩